________________
१४६
समुद्घात :- मूल शरीर को न छोड़कर अर्थात् मूल शरीर में रहते हुए जीवप्रदेशों को शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं । वेदना आदि सात कारणों से जीव-प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने के कारण समुद्घात के सात भेद हैं। उनमें से यहाँ वैक्रिय समुद्घात का उल्लेख है। यह वैक्रिय-शरीरनामकर्म के आश्रित है। वैक्रियलब्धि वाला जीव विक्रिया करते समय अपने आत्मप्रदेशों को विष्कंभ और मोटाई में शरीर परिमाण और ऊँचाई में संख्यात योजन प्रमाण दंडाकार रूप में शरीर से बाहर निकालता है । इसमें रत्नों का समावेश करते हैं।
रत्नों के नाम इस प्रकार हैं-(१) कर्केतन रत्न (२) वज्र-रत्न, (३) वैडूर्यरत्न (४) लोहिताक्ष रत्न (५) मसारगल्ल रत्न (६) हंसगर्भ रत्न (७) पुलक रत्न (८) सौगन्धिक रत्न (९) ज्योति रत्न (१०) अंजन रत्न (११) अंजनपुलक रत्न (१२) रजत रत्न (१३) जातरूप रत्न (१४) अंक रत्न (१५) स्फटिक रत्न (१६) रिष्ट
इन रत्नों के यथा बादर (असार-अयोग्य) पुदगलों को अलग किया और फिर यथासूक्ष्म (सारभूत) पुद्गलों को ग्रहण करके पुनः दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात करके उत्तर वैक्रिय रूपों की विकुर्वणा करके अर्थात् अपना-अपना वैक्रिय लब्धिजन्य उत्तर वैक्रिय शरीर बनाकर वे उत्कृष्ट त्वरा वाली, चपल, अत्यन्त तीव्र होने के कारण चंड, जवन-वेगशील, आँधी जैसी तेज दिव्य गति से तिरछे-तिरछे, स्थित असंख्यात द्वीप समुद्रों को पार करते हुए जहाँ जम्बूद्वीप में भारत की आमलकल्पा नगरी थी, आम्रशालवन चैत्य था और उसमें भी जहा श्रमण भगवान महावीर बिराजमान थे, वहाँ आये ।१५६
आभियोगिक देव किस प्रकार, किसकी विकुर्वणा करते है वह आगे दर्शाया गया हैं ।
संवर्तक वायु की विकुर्वणा जैसे कोई तरूण, बलवान, युगवान-कालकृत उपद्रवों से रहित, युवायुवास्था वाला, युवान, रोग रहित-निरोग, स्थिर पंजे वाला-जिसके हाथ का अग्रभाग कांपता न हो, पूर्णरूप से दृढ पुष्ट हाथ पैर पृष्ठान्तर-पीठ एवं पसलियों और जंघाओ वाला हो, अतिशय निचित परिपुष्ट मांसल गोल कंधोंवाला हो, चर्मेष्टक (चमड़े से वेष्टित पत्थर से बना अस्त्र विशेष), मुद्गर और मुक्कों की
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org