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गोत्र उन्हें कह सुनाओ । तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर के बिराजने के आसपास चारों और एक योजन प्रमाण गोलाकार भूमि में घास, पत्ते, काष्ठ, कंकड़-पत्थर, अपवित्र, मलिन, सड़ी-गली दुर्गन्धित वस्तुओं को अच्छी तरह से साफ कर दूर. एकान्त स्थान में ले जाकर फेंक दो । इसके अनन्तर उस भूमि को पूरी तरह से साफ स्वच्छ करके उस जमीन उपर दिव्य सुरभि सुगंधित गंधोदक की वर्षा करो कि जिसमें जल अधिक न बरसे, कीचड़ न हो । रिमझिम रिमझिम विरल रूप में नन्हीं-नन्हीं बूंदे बरसें और धूल मिट्टी नष्ट हो जाये । इस प्रकार की वर्षा करके उस स्थान को रजविहिन, नष्टरज, भ्रष्टरज, उपशांतरज, प्रशांतरज वाला बना दो ।
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जलवर्षा करने के अनन्तर उस स्थान पर सर्वत्र एक उत्सेध - ऊँचाई प्रमाण भास्वर चमकीले जलज और स्थलज पंचरंगे रंगबिरंगे सुगंधित पुष्पों की प्रचुर प्रमाण में इस प्रकार से वर्षा करो कि उनके वृन्त (उड़ियाँ) नीचे की ओर और पंखुडियाँ चित्त - ऊपर की ओर रहें ।
पुष्पवर्षा करने के बाद उस स्थान पर अपनी सुगंध से मन को आकृष्ट करने वाले काले अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरूष्क तुरुष्क (लोबान ) और धूप को जलाओ कि जिसकी सुगंध से सारा वातावरण मघमघा जाये - महक जाये, श्रेष्ठ सुगंध - समूह के कारण वह स्थान गंधवट्टिका-गंध की गोली के समान बन जाये, दिव्य सुरवरों - उत्तम देवों के अभिगमन योग्य हो जाये। ऐसा तुम स्वयं करो और दूसरों से करवाओ । यह करके और करवा कर शीघ्र मेरी आज्ञा वापस मुझे लौटाओ अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की मुझे सूचना दो । १५५
इस प्रकार से काम करने के बाद वापिस देव को सूचित करना पड़ता
हैं ।
आभियोगिक देवों द्वारा आज्ञापालन :
आभियोगिक देव सूर्याभदेव की आज्ञा को सुन कर हर्षित हुए, सन्तुष्ट हुए यावत् (आनंदित चित्त वाले हुए, उनके मन में प्रीति उत्पन्न हुई, परम प्रसन्न हुए और हर्षातिरेक से उनका ) हृदय विकसित हो गया । उन्होंने ईशान कोने में जाकर वैक्रिय समुद्घात करके संख्यात योजन का रत्नमय दंड बनाया ।
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