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तारा — देवों की जघन्य स्थिति १/८ पल्योपम की और उत्कृष्ट १/२ पल्योपम है। देवियों की स्थिति जघन्य १/८ पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक पल्योपम का १/८ भाग प्रमाण है ।
इस प्रकार ज्योतिष्क देव देवियों की जघन्य और उत्कृष्ट रूप से आयुष्य का उल्लेख किया गया है ।
९. उपपातनिवास स्थान :
भवनपति देवों का निवासस्थान भूगर्भ में है, तो ज्योतिष्क देवों का स्थान अंतरिक्ष में है । जिस का हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं । प्रज्ञापना सूत्र ०७ में उल्लेख है कि एवं रमणीय भूभाग से ७९० योजन की ऊँचाई पर, एक सौ दस योजन विस्तृत एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र हैं । यहाँ ज्योतिष्क देवों के असंख्यात लाख ज्योतिष्कविमानावास हैं । इस भूमिभाग से ९०० योजन ऊँचाई पर ज्योतिष्क लोकस्थिति है, जो कि स्वयंभूरमणसमुद्र पर्यंत विस्तृत हैं । १०. विमानों का स्वरूप :
ज्योतिष्क देवों के विमान आधे कपीठ के आकार के होते हैं। ये पूर्णरूप से स्फटिकमय होते हैं । ये सामने से चारों ओर ऊपर उठे हुए होते हैं । सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत होते हैं । विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र विचित्र होते हैं । हवा से उड़ती हुई विजय- वैजयंती पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त होते हैं । ये विमान बहुत ऊँचे गगनचुंबी शिखरों वाले होते हैं । इनकी जालियों के बीच में लगे हुए रत्न ऐसे लगते हैं मानो पिंजरे से बाहर निकाले गए हों । वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त होते हैं । इस में शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए होते हैं । तिलकों तथा रत्नमय अर्धचंद्रो से वे चित्र-विचित्र होते हैं । ये नानामणिमय मालाओं से सुशोभित होते हैं । ये अंदर और बाहर से चिकने होते हैं । विमान के प्रस्तर (पाथड़े) सोने की रूचिर बालू वाले होते हैं । वे सुखद स्पर्शवाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप प्रसन्नता-उत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप, अति सुंदर होते हैं । १०८ इस प्रकार से ज्योतिष्क देवों के विमान होते हैं ।
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यहाँ इनके विमानों की विशालता को भी निरूपित किया जा रहा है । हमको छोटा सा दिखने वाला चंद्र कितना विशाल है ?
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