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युद्ध न कर सकने योग्य, सदाजयशील, सदागुप्त, अड़तालीस कोष्ठको-कमरों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिव मंगलमय, और किंकर देवों के दण्डों से उपरक्षित हैं । लिपे-पुते होने से ये नगरावास प्रशस्त होते हैं । इसके उपर गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से लिप्त पाँचो अंगुलियों वाले हाथ के छापे लगे होते हैं । उनके तोरण और प्रतिद्वार-देश के भाग चंदन घडो से भलीभांति निर्मित होते है इत्यादि सामान्य वर्णन भवनपति देवों के नगरावासों के सदृश ही होते हैं । इन नगरावासों में भवनों की बनावट भी भवनपति के समान ही होती है।
___ व्यंतरनिकाय के ये देव सभी प्रशस्त गीत, संगीत, नृत्य एवं नाट्यकलाओं के प्रेमी होते हैं । बालसुलभ क्रीड़ा और हास-परिहास, कोलाहल करने में इन्हे आनन्दानुभूति होती है । पुष्पों से बनाये हुए मुकुट, कुंडल आदि इनके प्रिय आभूषण हैं । सर्व ऋतुओं के सुन्दर सुगंधित पुष्पों द्वारा निर्मित वनमालाओं से इनके वक्षस्थल भी शोभित रहते हैं । ये अनेक प्रकार के चित्र-विचित्र रंगबिरंगे पंचरंगे परिधान-वस्त्र पहनते हैं । ये सभी प्रायः सुमेरू पर्वत और हिमवंत आदि पर्वतों के रमणीय प्रदेशो में निवास करते हैं ।९४
११. देवों की रुचि प्रत्येक जीव की रूचि भिन्न भिन्न होती है, इसी प्रकार इन देवों की रूचि में भी भिन्नता होती है । अपने अपने स्वभाव के अनुसार रूचि में अन्तर आना स्वाभाविक है।
आठ प्रकार के व्यन्तर देवों में से किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व का इस प्रकार का स्वरूप होता है ।
१२. व्यंतरदेव का मनुष्यों के शरीरों में प्रवेश व्यंतरदेव मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं । कब ? जब यदि यह विधि न की गयी हो अर्थात् क्षपक के मृत शरीर के अंग बाँधे या छेदे नहीं गये हो तो मृत शरीर में क्रीडा करने के स्वभाव वाले कोई देवता (भूत अथवा पिशाच) उसमें प्रवेश कर सकता है । उस प्रेतको लेकर वह उठ सकता है, भोग सकता है, क्रीडादि कर सकता है ।१५
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