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यथा बहुत से पितर पुत्रों के शरीर में प्रविष्ट होकर जो गया आदि तीर्थस्थानों में श्राद्ध करने के लिए कहते हैं, वे भी कोई ठगनेवाले विभंगज्ञान के धारक व्यंन्तर आदि नीच जाति के देव ही हुआ करते हैं । ९६
व्यंतर निकाय के ये देव पर काया प्रवेश भी कर सकते हैं । कई बार सुनने में आता है कि अमुक के शरीर में देव - देवी की हाजरी उपस्थिति हुई— जैन परंपरा इसमें व्यंतर देव को ही मान्य करती है । मात्र व्यंतर देव ही परकाय प्रवेश कर सकते हैं । इस संदर्भ से ये हमको विशेष रूप से ज्ञात हो जाता है । इस प्रकार व्यन्तर निकाय के देवों का स्वरूप आदि की विवेचना यहाँ प्रस्तुत की गई है ।
(ब) ३) ज्योतिष्क देव
आकाश में चमकने वाले, दिन रात का भेद करने वाले जो विमान हैं, जैन परंपरा मानती है कि ये भी देवों का एक प्रकार 1
चार निकाय के देवों में तीसरा भेद है- ज्योतिष्क ।
ये पाँच प्रकार के हैं- चंद्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारे ।
ज्योतिष्क देव किसे कहा जाय ? अन्य देवों से ये किस प्रकार भिन्न है ? तो इनके स्वरूप का कथन है कि
जो देव विमानो में द्योतित (प्रकाशमान) होतें हैं, और उन में निवास करते हैं, उनको ज्योतिष्क देव कहते हैं । ९७
जो मस्तक के मुकुटों से आश्रित प्रभामण्डल सदृश सूर्यमण्डल आदि के द्वारा प्रकाश करते हैं, वे सूर्यादि ज्योतिष्कदेव कहलाते हैं । सूर्यदेव के मुकुट के अग्रभाग में सूर्य के आकार का, चन्द्रदेव के मुकुट के अग्रभाग में चन्द्र के आकार का, ग्रहदेव के मुकुट के अग्रभाग में ग्रह के आकार का, नक्षत्रदेव के मुकुट के अग्रभाग में नक्षत्र के आकार का और तारकदेव के मुकुट के अग्रभाग में तारे के आकार का चिह्न होता है । इससे वह प्रकाश करते हैं । ९८
व्युत्पत्तिपरक अर्थ - ज्योतिष् शब्द में स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होने पर ज्योतिष्क शब्द निष्पन्न होता है । यद्यपि ज्योतिष् शब्द नपुंसक लिंग है फिर भी 'क' प्रत्यय स्वार्थ में होने पर पुल्लिंग ज्योतिष्क शब्द बन जाता है । जैसे कुटी से कूटीर, शुण्डासे शुण्डार आदि । अर्थात् कहीं कहीं लिंग व्यतिक्रम हो जाता
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