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१०) किल्विषिक :
अंत्यज के समान देव । नगर के बाहर रहने वाले चंडाल आदि समान हलका काम करने वाले किल्विषिक देव हैं । इनकी गणना हलके देवों की कोटि में होती हैं ।
ये देव व्यन्तरनिकाय के आठ और ज्योतिष्कनिकाय के पाँच प्रकार के देव इन्द्र आदि आठ विभागों में ही विभक्त हैं, क्योंकि इन दोनों निकायों में त्रायस्त्रिस और लोकपाल जाति के देव नहीं होते हैं । ५१
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इस प्रकार सभी देवों में राज्य व्यवस्था, समाज-व्यवस्था, सफाई आदि के कर्मचारियों का विधान मनुष्यों की भांति ही दृष्टिगत होता है ।
देवों की गति - अगति
प्रत्येक जीव को अपने ही कर्मों से दूसरी गति प्राप्त होती है । देव गति शुभ कर्म करने से प्राप्त होती हैं। जैसे कि सराग संयम, देश संयम, अकाम निर्जरा, धर्म श्रवण, सुपात्र दान, तप, देव - गुरू के प्रति श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना, पद्म एवं तेजो लेश्या के परिणाम — इत्यादि कर्म करने से देव गति का बंध होता है ।
शुभ परिणाम के साथ पुण्यबंध से कौन सा जीव किस देव गति में उत्पन्न होता हैं— उसका चार्ट बनाकर स्पष्ट किया जा रहा है—
किस गति से आकर
१.
असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच
२. कर्मभूमि के संज्ञा पर्याप्त तिर्यंच
३.
मिथ्यादृष्टि के सासादन गुणस्थानवाले
पर्याप्त तिर्यंच - सम्यग्दृष्टि (स्वयंप्रभाचल से बाहर के भाग में रहनेवाले)
४. भोगभूमि के मनुष्य तिर्यंच मिथ्यादृष्टि के सासादन गुणस्थानवाले
५.
तापसी
६. भोगभूमि सम्यग्दृष्टि मनुष्य और तिर्यंच
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कहाँ उत्पन्न हुआ ? भवनवासी तथा व्यंतर तरह
बारहवें स्वर्ग पर्यंत
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सौधर्मादि से अच्युत स्वर्ग
तक
ज्योतिषीदेव
ज्योतिषी देव
सौधर्म और ऐशान में
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