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हितोपदेशः । गाथा-१३४ - सुपात्रदाने मूलदेवकथानकम् ।।
तह कहवि तत्थ तीए नरवइणो रंजियं तया चित्तं । वियरइ वरं जहा से सा वि हु नो सीकरेइ तयं ॥४४।। अह गाइडं पयट्टा समगं पच्छन्नमूलदेवेण । सरमहुरिमाइ अवगणियदिव्वगंधवगेएण ।।४५।। तुट्ठो पुणो वि राया वियरइ से अंगलग्गमाभरणं । सुपसन्नमणा पहुणो नणु जंगमकप्परुक्ख व्व ।।४६।। अह पाडलिपुरपहुणो दुवारओलग्गएण निउणेण । सिरिविमलसीहनामेण निवइणो तत्थ विनत्तं ।।४७।। एवं गंधव्वकला पाडलिपुत्तंमि मूलदेवस्स । देव ! मए सञ्चविया भुवणे वि हु न उण अनस्स ।।४।। ता गेयनट्टवित्राण - नाणपुत्राइ देवदत्ताए । बज्झउ पट्टो सिरिमूलदेवओ दुइयठाणंमि ।।४९।। तत्तो "पिसंडिपट्ट वियरंते नरवइंमि सा भणइ । उद्दिसिय मूलदेवं कलागुरू देव मम एसो ।।५०।। एयस्स तो अणुना इत्थ पमाणं ति तीइ संलत्ते । पच्छन्नमूलदेवेण जंपियं गिन्हसु पसायं ।।५१।। अह आलवेइ वीणं धुत्तो विस्सावसु ब्व तत्थ सयं । उप्पायंतो मोहं सो पसुवइणो पसूणं व ।।५२।। विनवइ विमलसीहो पुणो वि सो देव ! निच्छियं एसो । सो चेव मूलदेवो कला जमेसा न अन्नस्स ।।५३।। अह मूलदेवविसयं उत्कंठं पत्थिवंमि पयडंते । ओसारिऊण गुलियं नडु ब्व सो पायडो जाओ ।।५४।। दुल्लक्खो वि हु दूरं साहु तुमं लक्खिओ त्ति भणिरेण । विमलेण मूलदेवो सरभसामालिंगिओ कंठे ।।५।। पणमेइ पायपउमं तत्तो उवसप्पिऊण नरवइणो । तेणाऽवि सबहुमाणं सम्माणं लंभिओ दूरं ।।५६।। अह रंगसमत्तीए राया परिवड्डमाणमणरंगो । कहकह वि देवदत्ताइ पत्थिओ तं विसजेइ ।।५७।। पूरिजमाणकामो गुणाऽणुरत्ताइ देवदत्ताए । न मुयइ दुरोदरं सो धी ! वसणविडंबियं पुरिसं ।।५८।। इत्तो य तीइ नयरीइ धणयतुल्लो धणेण सत्थाहो । अयलु त्ति देवदत्ताइ रत्तचित्तो स पढम पि ।।५९।। भाडीदाणेण गिहमि तीइ विलसइ य सामिउ ब्व सया । धणमेव वसीकरणं रूवाजीवाण पाएण ।।६०।। वंचियतद्दिट्ठिपहो चिट्ठइ तत्थेव मूलदेवो वि । इयरो वि नियइ छिदं विडंबणे तस्स धुत्तस्स ।।६१।। हीलेइ देवदत्तं निद्धणधुत्तम्मि तम्मि अणुरत्तं । सा तीइ कुट्टिणी वि हु विविहोवाए पयती ।।२।। भणइ य फुडरक्खरंचिय मुंच हले ! मूलदेवमेयं तं । सेवइन पक्खिणी विहुरुक्खं सुहकंखिरी अहलं ।।३।। अह भणइ देवदत्ता अम्मो एगंतओ न मे चित्ते । विलसइ धणाणुराओ गुणाणुराओ वि नणु अत्थि ।।१४।। के संति गुणा किर निद्धणस्स नजंति नणु परिक्खाए । कीरउ नाम परिक्खा एवं होउत्ति सा भणिउं ।।५।। पेसइ अयलसयासे चेडिं किर अज देवदत्ताए । मह सामिणीइ सुंदर ! अच्छइ उच्छूसु अहिलासो ।।६।। सो वि हु परितुट्ठमणो महापसाउ त्ति जंपिरो झत्ति । पेसइ भरिउं सगडिं समूलपत्ताण उच्छृणं ।।६७।। ते द8 संतुट्ठा परिजंपइ संभली हले ! पिच्छ। कप्पतरुस्स व अकलिय - मुदारचरियत्तमयलस्स ।।६८।। सा भणइ अंब ! किमहं करेणुगा? मह कए जमेएण । उपणीया एवमिमे पिच्छसु बीयस्स वि विवेगं ।।६९।। __12. पिसंडि (दे) कनक-सुवर्ण इति भाषायाम् । - सुपा. ६०७ । कुमा. प्र. ९२, १४५ । पाइय स. म. पृ. ५९९ ।।
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