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उत्तरज्झयणाणि - २
तहाऽभिभूयस्स अदत्तहारिणो रसे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमोक्खई से ॥६९॥ मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य पओगकाले य दुही दुरंते । एवं अदत्ताणि समाययंतो रसे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥७०॥ रसाणुरत्तस्स रस्स एवं कत्तो सुहं हुज्ज कयाइ किंचि ? | तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कए ण दुक्खं ॥ ७१ ॥ एमेव रसंमि गओ पओसं उवेइ दुक्खोहपरंपराओ । पदुट्ठचित्तो य चिणेइ कम्मं जं से पुणो होइ दुहं विवागे ॥ ७२ ॥ रसे विरत्तो मणुओ विसोगो एएण दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पए भवमज्झे वि संतो जलेण वा पुक्खरिणीपलासं ॥७३॥
व्याख्या - एतान्यपि त्रयोदश सूत्राणि गन्धवद् रसाभिलापेन व्याख्येयानि । नवरं जिह्वाया जिह्वेन्द्रियस्य रस्यते आस्वाद्यते इति रसस्तं मनोज्ञं मधुरादिकममनोज्ञं कटुकादि ॥ तथा बिडिशं प्रान्तन्यस्तामिषो लोहकीलकस्तेन विभिन्नकायो विदारिताङ्गो बिडिशविभिन्नकायो मत्स्यो यथाऽऽमिषस्य मांसादेर्भोगोऽभ्यवहारस्तत्र गृद्ध आमिषभोगगृद्धः ||६१-७३।।
अथ स्पर्शनेन्द्रियमाश्रित्याह
कायस्स फासं गहणं वयंति तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु समो य जो तेसु स वीयरागो ॥७४॥ फासस्स कायं गहणं वयंति कायस्स फासं गहणं वयंति । रागस्स हे समणुन्नमाहु दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥७५॥ फासस्स जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे सीयजलावसन्ने गाहग्गहीए महिसे व रन्ने ॥७६॥ जे आवि दोसं समुवेइ निच्चं तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुद्दंतदोसेण सएण जंतू न किंचि फासं अवरज्झई से ॥७७॥ एगंतरत्तो रुइरंसि फासे अतालिसे से कुणई पओस । दुक्खस्स संपीडमुवेइ बाले न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥ ७८ ॥
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