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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २९७ [३.] शुक्लध्यानोंका स्वामित्व व फल दशपूर्व अथवा नौपूर्वको धारण करनेवाले उत्तम (१.) पृथक्त्ववितर्कवीचारका स्वामित्व मुनियोंके द्वारा सेवन करने योग्य है और उपशान्तकषाय तथा क्षीणकषायके भेदसे.... भ. आ./मू. १८८१ जम्हा सुदं वितक्कं जम्हा पुबगद अत्थ कुसलो य। ज्झायदि ज्झाणं एवं द्र.सं./टी./२०४/१ तोपशमश्रेणिविवक्षायासवितक्कं तेण तं झाणं ।१८८१। इस ध्यानका मपूर्वोपशमकानिवृत्त्युपशमकसूक्ष्मसाम्परास्वामी १४ पूर्वोके ज्ञाता मुनि होते हैं। (त.सू./ योपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये ९/२७) (म.पु/२१/१७४) भवति । क्षपकश्रेण्यां पुनरवकरण क्षपका निवृत्तिकरणक्षपकसूक्ष्मसाम्यरायक्षपकाभिधानस.सि./९/४१/४५४/११ उभयेऽणि गुणस्थानत्रये चेति प्रथमं शुक्लध्यानं व्याख्यातम्। परिप्राप्तश्रुतज्ञानमिष्ठेनारभ्ये ते इत्यर्थः। जिसने यह प्रथम शुक्लध्यान उपशमश्रेणिकी विवक्षामें सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त कर लिया है उसके द्वारा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म-साम्परायउपशमक ही दो ध्यान आरम्भ किये जाते हैं। (रा.वा./९/ तथा उपशान्तकषाय इन चार गुणस्थानोमें होता ४१/२/६३३/२०); (ज्ञा./४२/२२)। है। क्षपक श्रेणिकी विवक्षामें अपूर्वकरण, ध. १३/५.४,२६/७८/७ उवसंतकसायवीय- अनिवृत्तिकरण व सूक्ष्मसाम्परायक्षपक इन तीन रायछ दु मत्थो चोद्दस-दस-णवणुव्वहरो गुणस्थानोंमें होता है। पसत्थतिविहसंघडणो कसायकलंकत्तिण्णो तिसु (२.) एकत्ववितर्कअवीचार ध्यानका स्वामित्व जोगेसु एकजोगम्हि वट्टमाणो। भ.आ./मू./२०९९/१८१२ तो सो खीणकसाओ ध. १३/५,४,२६/८१/८ ण च जायदि खीणासु लोभकिट्ठीसु। एयत्त खीणक सायद्धाए सवत्थ वितक्कावीचारं तो ज्झादि सो झाणं । जब संज्वलन एयत्तविदक्कावीचारज्झाणमेव...। लोभकी सूक्ष्मकृष्टि हो जाती है, और क्षीणकषाय चौदह, दस, नौ पूर्वोका धारी, प्रशस्त तीन गुणस्थान प्राप्त होता है तब मुनिराज संहननवाला, कषाय कलंकसे पारको प्राप्त हुआ एकत्ववितर्कध्यानको ध्याते हैं। (ज्ञा./४२/२५)। और तीनों योगोंमें किसी एकमें विद्यमान ऐसा उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ जीव। २. दे. शुक्लध्यान/३/१ में. स. पूर्वोके ज्ञाताको ही क्षीणकषायगुणस्थानके कालमें सर्वत्र एकत्ववितर्क यह ध्यान होता है। अविचार ध्यान ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं ध. १३/५,४,२६/७९/१२ खीणकसाओ सुक्कलेहै। (अर्थात् वहाँ पृथक्त्ववितर्क ध्यान भी होता स्सिओ ओघबलो ओघसूरो वज़रिसहवइरणाहै। दे. शुक्लध्यान/३/३। रायणसरीरसंघडणो अण्णदरसंठाणो चोद्दसपुव्व हरो दसपुव्वहरो णवपुव्वहरो वा खइयसम्माइट्ठी चा. सा./२०६/१ चतुर्दशदशनवपूर्वधरयतिवृषभ-निषेव्यमुपशान्तक्षीणकषायभेदात्। चौदहपूर्व, खविदासेसकसायवग्गो। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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