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________________ २९८ ध्यानशतकम् ध. १३/५,४,२६/८१/७ उवसंतकसायम्मि केवल पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यान ही होता है, ऐसा एयत्तविदक्काविचारं। १. जिसके शुक्ल लेश्या है, कोई नियम नहीं है। और क्षीणकषायगुणस्थान जो निसर्गसे बलशाली है। निसर्गसे शूर कालमें सर्वत्र एकत्ववितर्क ध्यान ही होता है, ऐसा वज्रऋषभनाराचसंहननका धारी है, किसी एक भी कोई नियम नहीं है, क्योंकि वहाँ योग परावृत्तिका संस्थानवाला है, चौदह पूर्वधारी है, दश पूर्वधारी कथन एक समय प्रमाण अन्यथा बन नहीं सकता। है या नौ पूर्वधारी है, क्षायिकसम्यग्दृष्टि है और इससे क्षीणकषाय कालके प्रारम्भमें पृथक्त्वजिसने समस्त कषायवर्गका क्षय कर दिया है वितर्कवीचार ध्यानका अस्तित्व भी सिद्ध होता ऐसा क्षयिक सम्यग्दृष्टि ही समस्त कषायोंका क्षय है। करता है। २. उपशान्तकषाय गुणस्थानमें एकत्व (४.) सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाती व समुच्छिन्नवितर्कअवीचार ध्यान होता है। क्रियानिवृत्तिका स्वामित्व चा.सा./२०६ पूर्वोक्तक्षीणकषायावशिष्ट त. सू./९/३८,४० परे केवलिनः ।३८।... कालभूमिकम्...। पहिले कहे हुए क्षीणकषायके योगा-योगानाम्।४०। समयसे बाकी बचे हुए समयमें यह दूसरा शुक्लध्यान स.सि./९/४०/४५४/७ काययोगस्य सूक्ष्महोता है। क्रियाप्रतिपाति, अयोगस्य व्युपरतक्रियानिवर्तीति। द्र.सं./टी/४८/२०४/७ क्षीणकषायगुणस्थान काययोगवाले केवलिके सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यान होता सम्भवं द्वितीयं शुक्लध्यानम्। दूसरा शुक्लध्यान है और अयोगी केवलीके व्युपरतक्रियानिवर्तिध्यान क्षीणकषाय गुणस्थानमें ही सम्भव है। होता है। (स.सि ९/३८/४५३/९); (रा.वा./ (३.) उपशान्तकषायमें एकत्ववितर्क कैसे ९/३८,४०/१,२/८,२१)। दे. शुक्लध्यान/१/७,८ ध. १३/५,४,२६/८१/७ उवसंतकसायम्मि सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त कालमें एयत्तविदक्क-वीचारसंते 'उवसंतो दु पुधत्तं' इच्छेदेण जब भगवान् स्थूल योगोंका निरोध करते सूक्ष्म विरोहो होदि त्ति णासंकणिजं, तत्थ पुधत्तमेवे ___ काययोगमें प्रवेश करते हैं तब उनको त्ति णियमाभावादो। ण च खीणक-सायद्धाए सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता सव्वत्थ एयत्तविद क्कावीचारज्झाणमेव, __ है। और अयोग केवली गुणस्थानमें योगोंका पूर्ण जोगपरावत्तीए एगसमयपरूवणण्णाहाणुववत्ति निरोध हो जानेपर समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति नामका चौथा बलेण तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स वि शुक्लध्यान होता है। संभवसिद्धीदो। प्रश्न- यदि उपशान्तकषाय (५.) स्त्री को शुक्लध्यान सम्भव नहीं गुणस्थानमें एकत्ववितर्कवीचार ध्यान होता है तो सू. पा./मू./२६ चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं ‘उवसंतो दु पुधत्तं' इत्यादि गाथा वचनके साथ __ भावं तहा सहावेण। विजदि मासा तेसिं इत्थीसु विरोध आता है ? उत्तर- ऐसी आशंका नहीं ण संकया झाणा ।२६।- स्त्रीके चित्तकी शुद्धि करनी चौहिए, क्योंकि उपशान्तकषायगुणस्थानमें नहीं और स्वभावसे ही शिथिल परिणाम हैं। तथा Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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