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________________ २९६ [ २.] शुक्लध्यान निर्देश (१.) शुक्लध्यानमें श्वासोच्छ्वासका निरोध हो जाता है प. प्र./मू./२/१६२ णास - विणिग्गउ सासडा अंवरि जेत्थु विलाइ । तुट्ठइ मोहु तडत्ति तहिं मणु अत्थवणहं जाइ । १६२ | नाकसे निकला जो श्वास वह जिस निर्विकल्प समाधिमें मिल जावे. उसी जगह मोह शीघ्र नष्ट हो जाता है, और मन स्थिर हो जाता है । १६२ | भ.आ./वि./१८८८/१६९१/४ अकिरियं समुच्छिन्नप्राणापानप्रचार... । इस (समुच्छिन्न क्रिया निवृत्ति) ध्यानमें सर्व श्वासोच्छ्वासका प्रचार बंध हो जाता है। (२.) पृथक्त्ववितर्क में प्रतिपातपना सम्भव है ध. १३/५,४,२६ / पृ. पंक्ति तदो परदो अत्यंतर स्स णियमा संकमदि (७८/१० ) उवसंतकसाओ.... पुधत्तविदक्क- वीचारज्झाणं... अंतोमुहुत्तकालं ज्झायइ (७८/१४) एवं एदम्हादो णिव्वुइगमणाणुवलंभादो (७९/१) उवसंत । अर्थसे अर्थान्तरपर नियमसे संक्रमित होता है।... इस प्रकार उपशान्तकषाय जीव पृथक्त्ववितर्कवीचार ध्यानको अन्तर्मुहूर्त कालतक ध्याता है।.... इस प्रकार ... इस ध्यानके फलसे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं होती । (३) एकत्ववितर्क में प्रतिपातका विधि निषेध स.सि./९/४४/४५६/८ ध्यात्वा पुनर्न निवर्तत इत्युक्तमेकत्ववितर्कम् । वह ध्यान करके पुनः नहीं लौटता। इस प्रकार एकत्ववितर्क ध्यान कहा। ध. १३/५,४,२६/८१ / ६ उवसंतकसायम्मि Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम् भवद्धाखहि कसा सु णिवदिदम्मि पडिवादुवलंभादो । उपशान्तकषाय जीवके भवक्षय और कालक्षयके निमित्तसे पुनः कषायोंके प्राप्त होनेपर एकत्ववितर्क अविचार ध्यानका प्रतिपात देखा जाता है। (४.) चारों शुक्लध्यानोंमें अन्तर भ. आ./वि./१८८४-१८८५/१६८७/२० एकद्रव्यालम्बनत्वेन परिमितानेकसर्वपर्यायद्रव्यालम्बनात् प्रथमध्यानात्समस्तवस्तुविषयाभ्यां तृतीयचतुर्थाभ्यां च विलक्षणता द्वितीयस्यानया गाथया निवेदिता । क्षीणकषायग्रहणेन उपशान्तमोहस्वामिकत्वात् । सयोग्ययोगकेवलिस्वामिकाभ्यां च भेदः पूर्ववदेव । पूर्वव्यावर्णितवीचाराभावादवीचारत्वम्। यह ध्यान (एकत्व वितर्क ध्यान ) एक द्रव्यका ही आश्रय करता है इसलिए परिमित अनेक पर्यायों सहित अनेक द्रव्योंका आश्रय लेनेवाले प्रथम शुक्लध्यान से भिन्न है। तीसरा और चौथा ध्यान सर्व वस्तुओंको विषय करते हैं अतः इनसे भी यह दूसरा शुक्लध्यान भिन्न है, ऐसा इस गाथासे सिद्ध होता है। इस ध्यानका स्वामित्व क्षीणकषायवाला मुनि है, पहले ध्यानका स्वामित्व उपशान्तकषायवाला मुनि है और तीसरे तथा चौथे शुक्लध्यानका स्वामित्व सयोगकेवली तथा अयोगकेवली मुनि है। अतः स्वामित्वकी अपेक्षासे दूसरा शुक्लध्यान इन ध्यानोंसे भिन्न है । (भ.आ./वि./१८८२/१६८५/४)। (५.) शुक्लध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या चा. सा./२०५/५ तत्र शुक्लतरलेश्याबलाधानमन्तर्मुहूर्तकालपरिवर्तनं क्षायोपशमिकभावम् । यह ध्यान शुक्लतर लेश्याके बलसे होता है और अन्तर्मुहूर्त कालके बाद बदल जाता है। यह क्षायोपशमिकभाव है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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