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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२८१ यथावस्थित रूपमें ध्येय है ।११५ । (जा./३१/१७)। यथास्थितम्। विनात्मात्मीयसङ्कल्पाद् औदासीन्ये (२.) चेतनाचेतन पदार्थोका यथावस्थितरूप
निवेशितम्। जगतके समस्त तत्त्व जो जिस रूपसे ध्येय है
अवस्थित हैं और जिनमें मैं और मेरेपनका संकल्प
न होनेसे जो उदासीनरूपसे विद्यमान हैं वे सब ज्ञा./३१/१८ अमी जीवादयो भावाश्चिदचिल्लक्षण
ध्यानके आलम्बन हैं ।१७। म.प./२१/१९-२१); लाञ्छिताः। तत्स्वरूपाविरोधेन ध्येया धर्मे
(द्र.सं./मू./५५); (त.अनु./१३८) । मनीषिभिः ।१८। जो जीवादिक षद्रव्य चेतनअचेतन लक्षणसे लक्षित हैं, अविरोधरूपसे उन
पं.का./ता.व./१७३/२५३/२५ में उद्धृत-ध्येयं यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान् जनों द्वारा धर्मध्यानमें
वस्तु यथास्थितम्। अपने अपने स्वरूपमें यथास्थित ध्येय होता है। (ज्ञा. सा./१७); (त. अन./ वस्तु ध्येय है। १११,१३२) ।
[३.] पंच परमेष्ठीरूप ध्येय निर्देश (३.) सात तत्त्व व नौ पदार्थ ध्येय हैं (१.) सिद्धका स्वरूप ध्येय है ध. १३/५,४२६/३ जिणउवइट्ठ णवपयत्था वा ध.१३/५,४,२६/६९/४ को ज्झाइजइ। जिणो ज्झेयं होंति। जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट नौ वीयरायो केवलणाणेण अवगयतिकालगोयराणं पदार्थ ध्येय हैं।
तपज्जाओवचियछद्दव्वो णवकेवलद्धिप्पहुडिअणंतम.पु./२०/१०८ अहं ममास्रवो बन्धः संवरो गुणेहि आरद्धदिव्वदेहधरो अजरो अमरो निर्जराक्षयः। कर्मणामिति तत्त्वार्था ध्येयाः सप्त
अजोणिसंभवो... सव्वलक्खणसंपुण्णदप्पणनवाथवा ।१०८। मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव
संकंतमाणुसच्छायागारो संतो वि सयलआस्रव, बन्ध,संवर, निर्जरा तथा कर्मोका क्षय होनेरूप
माणुसपहावुत्तिण्णो अव्वओ अक्खओ। ... मोक्ष इस प्रकार ये सात तत्त्व या पुण्य-पाप मिला
सगसरूवे दिण्णचित्तजीवाणमसेसपावपणादेनेसे नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य है।
सओ...ज्झेयं होंति। प्रश्न- ध्यान करने योग्य
कौन है? उत्तर- जो वीतराग है, केवलज्ञानके (४.) अनीहितवृत्तिसे समस्त वस्तुएँ ध्येय हैं द्वारा जिसने त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायसे उपचित ध. १३/५,४,२६/३२/७० आलंबणेहि भरियो छह द्रव्योंको जान लिया है, नव केवललब्धि आदि लोगो ज्झाइदुमणस्स खवगस्स । जं जं मणसा अनन्त गुणोंके साथ जो आरम्भ हुए दिव्य देहको पेच्छइ तं तं आलंबणं होइ। यह लोक ध्यानके धारण करता है, जो अजर है, अमर है, अयोनि आलम्बनोंसे भरा हुआ है। ध्यानमें मन लगानेवाला सम्भव है, अदग्ध है, अछेद्य है... (तथा अन्य क्षपक मनसे जिस-जिस वस्तुको देखता है,वह वह भी अनेकों) समस्त लक्षणोंसे परिपूर्ण है, अत वस्तु ध्यानका आलम्बन होती है।
एव दर्पणमें संक्रान्त हुई मनुष्यकी छायाके समान म.प./२१/१७ ध्यानस्यालम्बनं कत्स्नं जगत्तत्त्वं होकर भी समस्त मनुष्योंके प्रभावसे पर हैं, अव्यक्त
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