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________________ २८० ध्यानशतकम् हो उसे ध्येय कहते है। पाँच धारणाओंका निर्देश - दे० पिण्डस्थध्यान (२.) ध्येयके भेद आग्नेयी आदि धारणाओंका स्वरूप -दे० वह म.पु./२१/१११ श्रुतमर्थाभिधानं च प्रत्यय- वह नाम। श्चेत्यदस्त्रिधा। शब्द, अर्थ और ज्ञान इस तरह [२.] द्रव्यरूप ध्येय निर्देश तीन प्रकारका ध्येय कहलाता है। (१.) प्रतिक्षण प्रवाहित वस्तु व विश्व ध्येय है त.अनु/९८,९९,१३१ आज्ञापायो विपाकं च त. अनु./११०-११५ गुणपर्यायवद्रव्यम् संस्थानं भुवनस्य च। यथागममविक्षिप्तचेतसा ।१००। यथैकमेकदा द्रव्यमुत्पित्सु स्थास्नु चिन्तयेन्मुनिः।६८। नाम च स्थापना द्रव्यं नश्वरम्। तथैव सर्वदा सर्वमिति तत्त्वं विचिन्तयेत् भावश्चेति चतुर्विधम्। समस्तं व्यस्तमप्येतद् ११०। अनादिनिधने द्रव्ये स्वपर्यायाः प्रतिक्षणम्। ध्येयमध्यात्मवेदिभिः ।९९।। एवं नामादिभेदेन उन्मजन्ति निमजन्ति जलकल्लोलवजले ।११२ । ध्येयमुक्तं चतुर्विधम्। अथवा द्रव्यभावाभ्यां द्विधैव यद्विवृतं यथा पूर्वं यञ्च पश्चाद्विवर्त्यति। विवर्तते तदवस्थितम् ।१३१ । मुनि आज्ञा, अपाय, विपाक यदत्राद्य तदेवेदमिदं च तत् ११३। सहवृत्ता और लोकसंस्थानका आगमके अनुसार चित्तकी गुणास्तत्र पर्यायाः क्रमवर्तिनः। स्यादेतदात्मकं एकाग्रताके साथ चिन्तवन करे ।९८ । द्रव्यमेते च स्युस्तदात्मकाः। ।११४। एवंविधमिदं अध्यात्मवेत्ताओंके द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और वस्तु स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकम्। प्रतिक्षणमभावरूप चार प्रकारका ध्येय समस्त तथा व्यस्त नाद्यनन्तं सर्वं ध्येयं यथा स्थितम्।११५ । द्रव्यरूप दोनों रूपसे ध्यानके योग्य माना गया है ।९९। ध्येय गुणपर्यायवान् होता है ।१००। जिस प्रकार अथवा द्रव्य और भावके भेदसे वह दो प्रकारका एकद्रव्य एकसमयमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप होता ही अवस्थित है। है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदा काल उत्पादव्ययआज्ञा, अपाय आदि ध्येय निर्देश ध्रौव्यरूप होते रहते हैं ।११०। द्रव्य जो कि -दे० धर्मध्यान/१। अनादिनिधन है, उसमें प्रतिक्षण स्वपर्यायें जलमें [३.] नाम व स्थापनारूप ध्येय निर्देश । कल्लोलोंकी तरह उपजती तथा विनशती रहती हैं ।११२। जो पूर्व क्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा त. अनु./१०० वाच्यस्य वाचकं नाम प्रतिमा और हो रहा है वही सब यह (द्रव्य) है और स्थापना मता। वाच्यका जो वाचक शब्द वह यही सब उन सबरूप है ।११३। द्रव्यमें गुण सहवर्ती नामरूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना मानी गयी और पर्यायमें क्रमवर्ती हैं। द्रव्य इन गुणपर्यायात्मक है और गुणपर्याय द्रव्यात्मक है ।११४ । इस प्रकार और भी दे० पदस्थध्यान (नामरूप ध्येय अर्थात् यह द्रव्य नामकी वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति अनेक प्रकारके मन्त्रों व स्वरव्यंजनआदिका ध्यान)। और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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