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________________ २८२ हैं, अक्षय हैं । ( तथा सिद्धोंके प्रसिद्ध आठ या बारह गुणोंसे समवेत है (दे० मोक्ष / ३) । जिन जीवोंने अपने स्वरूपमें चित्त लगाया है उनके समस्त पापोंका नाश करनेवाला ऐसा जिनदेव ध्यान करने योग्य है । ( म.पु. / २१ / १११-११९); (त. अनु. / १२०-१२२) । ज्ञा./३१/१७ शुद्धध्यानविशीर्णकर्मकवचो देवश्च मुक्तेर्वरः । सर्वज्ञः सकलः शिवः स भगवान्सिद्धः परो निष्कलः | १७ | शुद्धध्यानसे नष्ट हुआ है कर्मरूप आवरण जिनका ऐसे मुक्तिके वर सर्वज्ञदेव सकल अर्थात् शरीरसहित तो अर्हत भगवान् है अर्थात् निष्कल सिद्ध भगवान् है । (त. अनु. / ११९) (२.) अर्हतका स्वरूप ध्येय है म.पु. / २१/१२०-१३० अथवा स्नातकावस्थां प्राप्तो घातिव्यपायतः । जिनोऽर्हन् केवली ध्येयो बिभ्रत्तेजोमयं वपुः । १२० । घातिया कर्मोंके नष्ट हो जानेसे जो स्नातक अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, और जो तेजोमय परम औदारिक शरीरको धारण किये हुए हैं ऐसे केवलज्ञानी अर्हत जिन ध्यान करने योग्य हैं । १२० । वे अर्हत हैं, सिद्ध हैं, विश्वदर्शी व विश्वज्ञ हैं । १२१ - १२२ । अनन्तचतुष्टय जिनको प्रगट हुआ है । १२३ । समवसरणमें विराजमान व अष्टप्रातिहार्यो युक्त हैं । १२४ । शरीरसहित होते हुए भी ज्ञानसे विश्वरूप हैं । १२५ । विश्वव्यापी, विश्वतोमुख, विश्वचक्षु, लोकशिखामणि हैं । १२६ । सुखमय, निर्भय, निःस्पृह, निर्बाध, निराकुल, निरपेक्ष, नीरोग, नित्य, कर्मरहित ।१२७- १२८ । नव केवललब्धियुक्त, अभेद्य, अच्छेद्य, निश्चल | १२९ । ऐसे लक्षणोंसे लक्षित, परमेष्ठी, परंतत्त्व, परंज्योति, Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम् व अक्षर स्वरूप अर्हत भगवान् ध्येय हैं |१३० । (त. अनु. / १२३ - १२९) । (३.) अर्हतका ध्यान पदस्थ - पिंडस्थ व रूपस्थ तीनों ध्यानोमें होता है द्र.सं./टी./५० की पातनिका / २०९/८ पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति... । पदस्थ, पिण्डस्थ और रूपस्थ इन तीन ध्यानोंके ध्येयभूत जो भी अर्हत सर्वज्ञ हैं उनके स्वरूपको दिखलाता हूँ । (४.) आचार्य उपाध्याय साधु भी ध्येय हैं त. अनु. / १३० सम्यग्ज्ञानादिसम्पन्नाः प्राप्तसप्तमहर्द्धयः । यथोक्तलक्षणा ध्येया सूर्युपाध्यायसाधवः | १३० । जो सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयसे सम्पन्न हैं, तथा जिन्हें सात महाऋद्धियाँ या लब्धियाँ प्राप्त हुई हैं, और जो यथोक्त लक्षणके धारक हैं ऐसे आचार्य, उपाध्याय और साधु ध्यानके योग्य हैं। (५.) पंचपरमेष्ठीरूप ध्येयकी प्रधानता त. अनु. / ११९,१४० तत्रापि तत्त्वतः पञ्च ध्यातव्याः परमेष्ठिनः । ११९ । संक्षेपेण यदत्रोक्तं विस्तारात्परमागमे । तत्सर्वं ध्यातमेव स्याद् ध्यातेषु परमेष्ठि । १४० । आत्माके ध्यानमें भी वस्तुतः पंचपरमेष्ठी ध्यान किये जानेके योग्य हैं । ११९ । जो कुछ यहाँ संक्षेपरूपसे तथा परमागममें विस्ताररूपसे कहा गया है वह सब परमेष्ठियोंके ध्याये जानेपर ध्यात हो जाता है । अथवा पंचपरमेष्ठियोंका ध्यान कर लिया जानेपर सभी श्रेष्ठ व्यक्तियों व वस्तुओंका ध्यान उसमें समाविष्ट हो जाता है ।१४० । पंचपरमेष्ठीका स्वरूप - दे० वह वह नाम । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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