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________________ २७४ मात्रके लिए मुनियोंने प्रगट किये हैं। (ज्ञा. / २८/ १००) त. अनु. / २१९ अत्रैव माग्रह कार्षुर्यद्ध्यानफलमैहिकम्। इदं हि ध्यानमाहात्म्यख्यापनाय प्रदर्शितम् । २१९ । इस ध्यानफलके विषयमें किसीको यह आग्रह नहीं करना चाहिए कि ध्यानका फल ऐहिक ही होता है, क्योंकि यह ऐहिकफल तो ध्यानके माहात्म्यकी प्रसिद्धिके लिए प्रदर्शित किया गया है। [ ९ ] पारमार्थिक ध्यानका माहात्म्य भ.आ./मू./१८९१-१९०२ एवं कसायजुद्धं मि हवदि खवयस्स आउधं झाणं ।... । १८९२ । रणभूमी कवचं होदि ज्झाणं कसायजुद्धम्मि/ .. । १८९३ । वइरं रदणेसु जहा गोसीसं चंदणं व गंधेसु । वेरुलियं व मणीणं तह ज्झाणं होइ खवयस्स । १८९६ । कषायोंके साथ युद्ध करते समय ध्यान क्षपकके लिए आयुध व कवचके तुल्य है । १८९२ - १८९३ । जैसे रत्नोंमें वज्ररत्न श्रेष्ठ है, सुगन्धि पदार्थो में गोशीर्ष चन्दन श्रेष्ठ है, मणियों में वैडूर्यमणि उत्तम है, वैसे ही ज्ञान-दर्शन- चारित्र और तपमें ध्यान ही सारभूत व सर्वोत्कृष्ट है । १८९६ । ज्ञा.सा./३६ पाषाणे स्वर्णं काष्ठेऽग्निः विना प्रयोगैः । न यथा दृश्यन्ते इमानि ध्यानेन विना तथात्मा |३६| जिस प्रकार पाषाणमें स्वर्ण और काष्ठमें अग्नि बिना प्रयोगके दिखाई नहीं देती, उसी प्रकार ध्यानके विना आत्मा दिखाई नहीं देता । Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम् अ.ग. श्रा./१५/९६ तपांसि रौद्राण्यनिशं विधत्तां, शास्त्राण्यधीतामखिलानि नित्यम् । धत्तां चरित्राणि निरस्ततन्द्रो, न सिध्यति ध्यानमृते तथाऽपि । ९६ । निशदिन घोर तपश्चरण भले करो, नित्य ही सम्पूर्ण शास्त्रोंका अध्ययन भले करो, प्रमादरहित होकर चारित्र भले धारण करो, बिना सिद्धि नहीं । परन्तु ध्यानके ज्ञा. / ४० / ३,५ क्रुद्धस्याप्यस्य सामर्थ्यमचिन्त्यं त्रिदशैरपि । अनेकविक्रियासारध्यानमार्गावलम्बितः |३| असावनन्तप्रथितप्रभवः स्वभावतो यद्यपि यन्त्रनाथः । नियुज्यमानः स पुनः समाधी करोति विश्वं चरणाग्रलीनम् ॥५ । अनेक प्रकारकी विक्रियारूप असार ध्यानमार्गको अवलम्बन करनेवाले क्रोधीके भी ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जाती है कि जिसका देव भी चिन्तवन नहीं कर सकते |३| स्वभावसे ही अनन्त और जगत्प्रसिद्ध प्रभावका धारक यह आत्मा यदि समाधिमें जोडा जाये तो समस्त जगतको अपने चरणोंमें लीन कर लेता है । (केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है) 1५1 (विशेष दे० धर्म्यध्यान / ४) (१०.) सर्व प्रकारके धर्म एक ध्यानमें अन्तर्भूत हैं द्र.सं./मू./४७ दुविहं पि मोक्खहेडं ज्झाणे पाउणदिजं मुणी णियमा । तम्हा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह । ४७ । मुनिध्यानके करनेसे जो नियमसे निश्चय व व्यवहार दोनों प्रकारके मोक्षमार्गको पाता है, इस कारण तुम चित्तको एकाग्र करके उस ध्यानका अभ्यास करो । (त. अनु./३३) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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