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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् ।
२७३ त. अनु/ श्लो. नं. का सारार्थ- महामन्त्र महामण्डल ज्ञानी मुनियोंने विद्यानुवाद पूर्वसे असंख्य भेदवाले व महामुद्राका आश्रय लेकर धारणाओं द्वारा स्वयं अनेक प्रकारके विद्वेषण उच्चाटन आदि कर्म पार्श्वनाथ होता हुआ ग्रहोंके विघ्न दूर करता है ।२०२। कौतूहलके लिए प्रगट किये हैं, परन्तु वे सब इसी प्रकार स्वयं इन्दर होकर (दे० ऊपर नं. ४ कुमार्ग व कुध्यान के अन्तर्गत हैं ।४। वाला शीर्षक) स्तम्भन कायोको करता है ।२०३- त अन /२२० तदध्यानं रौदमार्तं वा यदैहिक२०४। गरुड होकर विषको दूर करता है, कामदेव फलार्थिनाम। ऐहिकफलको चाहनेवालोंको जो ध्यान होकर जगत्को वश करता है, अग्निरूप होकर दो या तो आध्यान या गटध्यान। शीतज्वरको हरता है, अमृतरूप होकर दाहज्वरको हरता है, क्षीरोदधि होकर जगको पुष्ट करता है
[७.] अप्रशस्त च प्रशस्त ध्यानोंमें हेयोपादेयताका
विवेक ।२०५-२०८।
___ म.पु./२१/२९ हेयमाद्यं द्वयं विद्धि दुर्ध्यानं त. अनु./२०९ किमत्र बहुनोक्तेन यद्यत्कर्म
भववर्धनम्। चिकीर्षति। तदेवतामयो भूत्वा तत्तनिवर्तयत्ययम् ।२०९।
उत्तरं द्वितयं ध्यानम् उपादेयन्तु योगिनाम् ।२९। इस विषयमें बहुत कहनेसे क्या, यह योगी जो
इन चारों ध्यानोंमेंसे पहेलेके दो अर्थात् आर्त
रौद्रध्यान छोडनेके योग्य हैं, क्योंकि वे खोटे ध्यान भी काम करना चाहता है, उस उस कर्मके देवतारूप
हैं और संसारको बढानेवाले हैं, तथा आगेके दो स्वयं होकर उस उस कार्यको सिद्ध कर लेता है
अर्थात् धर्म्य और शुक्लध्यान मुनियोंको ग्रहण करने ।२०९।
योग्य हैं ।२९। (भ.आ./मू./ १६९९-१७००/ त. अनु./श्लो. का सारार्थ-शान्तात्मा होकर
१५२०), (ज्ञा./२५/२१); (त. अनु./३४,२२०) शान्तिकर्मोको और क्रूरात्मा होकर क्रूरकर्मोकों करता है ।२१०। आकर्षण, वशीकरण, स्तम्भन, मोहन,
ज्ञा./४०/६ स्वप्नेऽपि कौतु के नापि
नासद्ध्यानानि योगिभिः। सेव्यानि यान्ति बीजत्वं उच्चाटन आदि अनेक प्रकारके चित्र विचित्र कार्य
यतः सन्मार्गहानये।६। योगी मुनियोंको चाहिए कर सकता है।२११-२१६ ।
कि (उपरोक्त ऐहिकफलवाले) असमीचीन ध्यानोंको (६.)परन्तु ऐहिक फलवाले ये सब ध्यान
कौतुकसे स्वप्न मैं भी न विचारें, क्योंकि वे अप्रशस्त हैं
सन्मार्गकी हानिके लिए बीजस्वरूप हैं। ज्ञा./४०/४
[.] ऐहिक ध्यानोंका निर्देश केवल ध्यानकी बहूनि कर्माणि मुनिप्रवरैविद्यानुवादात्प्रक
शक्ति दर्शानेके लिए किया गया है टीकृतानि। असंख्यभेदानि कुतूहलार्थं कुमार्गकुध्यानगतानि
ज्ञा./४०/४ प्रकटीकृतानि असंख्येयभेदानि
कुतूहलार्थम्। ध्यानके ये असंख्यात भेद कुतूहल सन्ति ।४।
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