SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 292
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २७५ (और भी दे० मोक्षमार्ग/२५/; धर्म/३/३) योग्य है जिसमें उत्तम रीतिसे योगका समाधान नि.सा./ता.व./११९ अतः पञ्चमहाव्रत- प्राप्त होता हो। ध्यान करनेवालोंके लिए दिन-रात्रि पञ्चसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यान-प्रायश्चित्तालोचनादिकं और वेला आदि रूपसे समयमें किसी प्रकारका सर्वं ध्यानमेवेति। अत: पंच महाव्रत, पंचसमिति, नियमन नहीं किया जा सकता है।” (म.पु./२१/ त्रिगुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित और आलोचना आदि । ८१) सब ध्यान ही हैं। और भी दे० कृतिकर्म/३/८ (देश काल आसन [३] ध्यानकी सामग्री व विधि आदिका कोई अटल नियम नहीं है।) (१.) ध्यानकी द्रव्य क्षेत्रादि सामग्री व उसमें (३.) उपयोग के आलम्बनभूत स्थान उत्कृष्टादि विकल्प रा.वा./९/४४/१/६३४/२४ इत्येवमादिकृतत. अनु./४८-४९ द्रव्यक्षेत्रादिसामग्री ध्यानोत्पत्तौ । परिकर्मा साधुः, नाभेरूज़ हृदये मस्तकेऽन्यत्र यतस्त्रिधा । ध्यातारस्त्रिविधास्तस्मात्तेषां ध्यानान्यपि वा मनोवृत्तिं यथापरिचयं प्रणिधाय मुमुक्षुः त्रिधा ।४८। सामग्रीतः प्रकृष्टाया ध्यातरि __ प्रशस्तध्यानं ध्यायेत्। इस प्रकार (आसन, मुद्रा, ध्यानमुत्तमम्। स्याजघन्यं जघन्याया मध्यमायास्तु क्षेत्रादि द्वारा दे० कृतिकर्म/३) ध्यानकी तैयारी मध्यमम् ।४९। ध्यानकी उत्पत्तिके कारणभूत द्रव्य करनेवाला साधु नाभिके ऊपर, हृदयमें, मस्तकमें क्षेत्र-काल-भावआदि सामग्री क्योंकि तीन प्रकार या और कहीं अभ्यासानुसार चित्तवृत्तिको स्थिर की है, इसलिए ध्याता व ध्यान भी तीन प्रकारके रखनेका प्रयत्न करता है। (म.पु./२१/६३) हैं ।४८। उत्तम सामग्रीसे ध्यान उत्तम होता है, ..ज्ञा./३०/१३ नेत्रद्वन्द्वे श्रवणयुगले नासिकाग्रे मध्यमसे मध्यम और जघन्यसे जघन्य ।४९। ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि (घ्याता/६) भ्रूयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः (२.) ध्यानका कोई निश्चित काल नहीं है। कीर्तिताऽन्यत्र देहे, तेष्वेकस्मिन्विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ।१३। निर्मल बुद्धि आचार्योंने ध. १३/५,४,२६/१९/६७ व टीका पृ. ६६/ ध्यान करनेके लिए- १. नेत्रयुगल, २. दोनों कान, ६ अणियदकालो-सव्वकालेसु सुहपरिणाम ३. नासिकाका अग्रभाग, ४. ललाट, ५. मुख, संभवादो । एत्थ गाहाओ-"कालो वि सो छिय ६.नाभि, ७. मस्तक, ८. हृदय, ९. तालु, १०. जहिं जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ । ण हु दोनों भौंहोंका मध्यभाग, इन दश स्थानोंमेंसे किसी दिवसणिसावेलादिणियमणं ज्झाइणो समए" ।१९। एक स्थानमें अपने मनको विषयोंसे रहित करके उस (ध्याता) के ध्यान करनेका कोई नियत काल आलम्बित करना कहा है। (वसु.श्रा./४६८); नहीं होता, क्योंकि सर्वदा शुभ परिणामोंका होना (गु.श्रा./२३६) सम्भव है। इस विषयमें गाथा है “काल भी वही (४.) ध्यानकी विधि सामान्य Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy