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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २६७ १. पृथकत्वएकत्ववितर्कविचार आदि शुक्लध्यानोके योगादिकी संक्रान्तिमें भी ध्यान कैसे? ध्याता। - दे० शुक्लध्यान । - दे० शुक्लध्यान/४/१। २. धर्म व शुक्लध्यानके ध्याताओंमें संहनन सम्बन्धी एकाग्रचिन्तानिरोधका लक्षण । चर्चा। ___ - दे० संहनन । - दे० एकाग्र । ३. चारों ध्यानोंके ध्याताओंमें भाव व लेश्या ध्यानसम्बन्धी विकल्पका तात्पर्य। आदि । - दे० वह वह नाम । -दे० विकल्प। ४. चारों ध्यानोंका गुणस्थानोंकी अपेक्षा ३ ध्यानके भेद । स्वामित्व । - दे० वह वह नाम । ४ अप्रशस्त, प्रशस्त व शुद्धध्यानोंके लक्षण । ५. आर्त रौद्र ध्यानोंके बाह्यचिह्न । आर्त-रौदादि तथा पदस्थ-पिंडस्थ आदि ध्यानों - दे० वह वह नाम। सम्बन्धी। ५. ध्यान -दे० वह वह नाम। २ ध्यान निर्देश एकाग्रताका नाम ध्यान है। अर्थात् व्यक्ति जिस समय जिस भावका चिन्तवन करता है, उस समय १ ध्यान व योगके अंगोका नाम निर्देश । वह उस भावके साथ तन्मय होता है। इसलिए ध्याता, ध्येय, प्राणायाम आदि। जिस किसी भी देवता या मन्त्र, या अर्हन्त आदिको -दे० वह वह नाम। ध्याता है, उस समय वह अपनेको वह ही प्रतीत २ ध्यान अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं टिकता । होता है। इसीलिए अनेक प्रकारके देवताओंको ३ ध्यान व ज्ञान आदिमें कथंचित् भेदाभेद। ध्याकर साधकजन अनेक प्रकारके ऐहिकफलोंकी ध्यान व अनुप्रेक्षा आदिमें अन्तर । प्राप्ति कर लेते हैं। परन्तु वे सब ध्यान आर्त व -दे० धर्मध्यान/३। रौद्र होनेके कारण अप्रशस्त हैं। धर्म-शुक्लध्यान द्वारा शुद्धात्माका ध्यान करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती ४ ध्यान द्वारा कार्यसिद्धिका सिद्धान्त। है, अत: वे प्रशस्त हैं। ध्यानके प्रकरणमें चार ५ ध्यानसे अनेक लौकिकप्रयोजनोंकी सिद्धि । अधिकार होते हैं- ध्यान, ध्याता, ध्येय व ध्यानफल। ६ ऐहिकफलवाले ये सब ध्यान अप्रशस्त हैं। चारोंका पृथक्-पृथक् निर्देश किया गया है। ध्यानके मोक्षमार्गमें यन्त्र-मन्त्रादिकी सिद्धिका निषेध। अनेकों भेद हैं, सबका पृथक्-पृथक् निर्देश किया - दे० मन्त्र। ध्यानके लिए आवश्यक ज्ञानकी सीमा । १ ध्यानके भेद व लक्षण -- दे० ध्याता/१॥ १ ध्यान सामान्यका लक्षण । ७ अप्रशस्त व प्रशस्तध्यानोंमें हेयोपादेयताका २ एकाग्रचिन्तानिरोध लक्षणके विषयमें शंका । विवेक। ८ ऐहिकध्यानोंका निर्देश केवल ध्यानकी शक्ति Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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