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ध्यानशतकम्
दर्शानके लिए किया गया है।
आदि रूप होता है। ९ पारमार्थिकध्यानका माहात्म्य।
गरुड आदि तत्त्वोंका स्वरूप। – दे० वह ध्यानफल ।
वह नाम। - दे० वह वह ध्यान । जिस देव या शक्तिको ध्याता है उसी रूप हो १० सर्व प्रकारके धर्म एक ध्यानमें अन्तर्भूत है। जाता है। ३ ध्यानकी सामग्री व विधि
___-दे० ध्यान/२/४,५। १ द्रव्य-क्षेत्रादि सामग्री व उसमें उत्कष्टादिके ६ अन्य ध्येय भी आत्मामें आलेखितवत प्रतीत विकल्प।
होते हैं। ध्यानयोग्य मुद्रा, आसन, क्षेत्र व दिशा । [१.] ध्यानके भेद व लक्षण
- दे० कृतिकर्म/३। (१.) ध्यान सामान्यका लक्षण २ ध्यानका कोई निश्चित काल नहीं है। १. ध्यानका लक्षण-एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान योग्य भाव ।
त.सू./९/२७ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो - दे० ध्येय।
ध्यानमाऽन्तर्मुहूर्तात् ।२७। उत्तम संहननवालेका ३ उपयोगके आलम्बनभूत स्थान ।
एक विषयमें चित्तवृत्तिका रोकना ध्यान है, जो ४ ध्यानकी विधि सामान्य ।
अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। (म.पु./२१/८), ध्यानमें वायुनिरोध सम्बन्धी ।
(चा.सा./१६६/६), (प्र.सा./त.प्र./१०२), दे० प्राणायाम।
(त.अनु./५६) ध्यानमें धारणाओंका अवलम्बन।
स.सि/९/२०/४३९/८ चित्तविक्षेपत्यागो ध्यानम्। - दे० पिंडस्थ।
चित्तके विक्षेपका त्याग करना ध्यान है। ५ अर्हतादिके चिन्तवन द्वारा ध्यानकी विधि।
त. अनु./५९ एकाग्रग्रहणं चात्र वैयग्र्य४ ध्यानकी तन्मयता सम्बन्धी सिद्धान्त ।
विनिवृत्तये। व्यग्रं हि ज्ञानमेव स्याद् १ ध्याता अपने ध्यानभावसे तन्मय होता है।
ध्यानमेकाग्रमुच्यते ।५९। इस ध्यानके लक्षणमें २ जैसा परिणमन करता है उस समय आत्मा जो एकाग्रका ग्रहण है वह व्यग्रताकी विनिवृत्तिके वैसा ही होता है।
लिए है। ज्ञान ही वस्तुत: व्यग्र होता है, ध्यान ३ आत्मा अपने ध्येयके साथ समरस हो जाता नहीं। ध्यानको तो एकाग्र कहा जाता है। है।
पं.ध./उ./८४२ यत्पुनर्ज्ञानमेकत्र नैरन्तर्येण ४ अहँतको ध्याता हुआ स्वयं अहंत होता है।
है। कुत्रचित् । अस्ति तद्ध्यानमात्रापि क्रमो ५ गरुड आदि तत्त्वोंकों ध्याता हुआ स्वयं गरुड नाप्यक्रमोऽर्थतः ।८४२। किसी एक विषयमें
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