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________________ २६६ ध्यानशतकम् [५.] शुक्लध्यान योग्य ध्याता रोहणक्षमाः ।३५। व्रजऋषभसंहननके धारक, ध.१३/५,४,२/गा. ६७-७१/८२ अभया पूर्वनामक श्रुतज्ञानसे संयुक्त और उपशम व क्षपक संमोहविवेगविसग्गा तस्स होंति लिंगाई। लिंगिजइ दोनों श्रेणियोंके आरोहण में समर्थ, ऐसे अतीत जेहि मुणी सुक्कज्झाणोवगयचित्तो १६७। चालिजड महापुरुषोंने इस भूमण्डलपर शुक्लध्यानको ध्याया बीहेइ व धीरो ण परीसहोवसग्गेहि। सुहुमेसु ण सम्मुज्झइ भावेसु ण देवमायासु ।६८। देहविवित्तं [६.] ध्याताओंके उत्तम आदि भेद निर्देश पेच्छइ अप्पाणं तह य सव्वसंजोए। देहोवहिवोसग्गं पं.का/ता.व./१७३/२५३/२६ तत्त्वानुशासनणिस्संगो सव्वादो कुणदि ।६९। ण ध्यानग्रन्थादौ कथितमार्गेण जघन्यमध्यकसायसमुत्थेहि वि बाहिजइ माणसेहि दुक्खेहि। मोत्कृष्टभेदेन त्रिधा ध्यातारो ध्यानानि च ईसाविसायसोगादिएहि झाणोवगयचित्तो ।७०। भवन्ति । तदपि कस्मात । तत्रैवोक्तमास्ते सीयायवादिएहि मि सारीरेहिं बहुप्पयारेहिं । द्रव्यक्षेत्रकालभावरूपा ध्यानसामग्री जघन्याणो बाहिजइ साहू झेयम्मि सुणिशलो संतो १७१। दिभेदेन त्रिधेति वचनात । अथवाति संक्षेपेण अभय, असंमोह, विवेक और विसर्ग ये शुक्लध्यानके द्विधा ध्यातारो भवन्ति शुद्धात्मभावना प्रारम्भकाः लिंग हैं, जिनके द्वारा शुक्लध्यान को प्राप्त हुआ पुरुषाः सूक्ष्मसविकल्पावस्थायां प्रारब्धयोगिनो चित्तवाला मुनि पहिचाना जाता है।६७। वह धीर भण्यन्ते, निर्विकल्पशुद्धात्मावस्थायां परिषहों और उपसर्गों से न तो चलायमान होता पुनर्निष्पत्रयोगिन इति संक्षेपेणाध्यात्मभाषया है और न डरता है, तथा वह सूक्ष्म भावों व ध्यातृध्यानध्येयानि... ज्ञातव्याः। तत्त्वानुशासन देवमायामें भी मुग्ध नहीं होता है ।६८। वह देहको नामक ध्यानविषयक ग्रन्थके आदिमें. (दे० ध्यान/ अपनेसे भिन्न अनुभव करता है, इसी प्रकार सब ३/१) कहे अनुसार ध्याता व ध्यान जघन्य, मध्यम तरहके संयोगोंसे अपनी आत्माको भी भिन्न अनुभव व उत्कृष्टके भेदसे तीन-तीन प्रकारके हैं, क्योंकि करता है, तथा नि:संग हुआ वह सब प्रकारसे देह वहाँ ही उनको द्रव्य-क्षेत्र-काल व भावरूप सामग्रीकी व उपधिका उत्सर्ग करता है ।६९। ध्यानमें अपने अपेक्षा तीन-तीन प्रकारका बताया गया है। अथवा चित्तको लीन करनेवाला, वह कषायोंसे उत्पन्न अतिसंक्षेपसे कहें तो ध्याता दो प्रकारका हैहुए ईर्ष्या, विषाद और शोक आदि मानसिकदुःखोंसे प्रारब्धयोगी और निष्पन्नयोगी । शुद्धात्मभावनाको भी नहीं बाँधा जाता है ७०। ध्येयमें निश्चल प्रारम्भ करनेवाले पुरुष सूक्ष्मसविकल्पावस्थामें हुआ वह साधु शीत व आतप आदि बहुत प्रारब्धयोगी कहे जाते हैं। और निर्विकल्प प्रकारकी बाधाओंके द्वारा भी नहीं बाँधा जाता शुद्धात्मवस्थामें निष्पन्नयोगी कहे जाते हैं । इस है ७१। प्रकार संक्षेपसे अध्यात्मभाषामें ध्याता, ध्यान व त.अनु./३५ वज्रसंहननोपेताः पूर्वश्रुत ध्येय जानने चाहिए। समन्विताः। दध्युः शुक्लमिहातीताः श्रेण्या- [७.] अन्य सम्बन्धित विषय _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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