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________________ २६५ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् प्रसन्न, और शंका-सन्देह-शल्यादिसे ग्रस्त हों, ऐसे धर्मध्यानस्य सम्मतः ।४५। धर्मध्यानका ध्याता रंकपुरुष न ध्यान करनेको समर्थ है, न भेदज्ञान इस प्रकारके लक्षणोंवाला माना गया है- जिसकी करनेको समर्थ हैं और न तप ही कर सकते हैं। मुक्ति निकट आ रही हो, जो कोई भी कारण दे० मंत्र- (मन्त्र-यन्त्रादिकी सिद्धि द्वारा वशीकरण पाकर कामसेवा तथा इन्द्रियभोगोंसे विरक्त हो गया आदि कार्योकी सिद्धि करनेवालोंको ध्यानकी सिद्धि हो, जिसने समस्त परिग्रहका त्याग किया हो, जिसने नहीं होती) आचार्यके पास जाकर भले प्रकार जैनेश्वरी दीक्षा धारण की हो, जो जैनधर्ममें दीक्षित होकर मुनि दे० धर्मध्यान/२/३ (मिथ्यादृष्टियोंको यथार्थधर्म व बना हो, जो तप और संयमसे सम्पन्न हो, जिसका शुक्लध्यान होना सम्भव नहीं है) आश्रय प्रमादरहित हो, जिसने जीवादि ध्येय वस्तुकी दे० अनुभव/५/५ साधुको ही निश्चयध्यान सम्भव व्यवस्थितिको भले प्रकार निर्णीत कर लिया हो, है गृहस्थको नहीं, क्योंकि प्रपंचग्रस्त होनेके कारण आर्त और रौद्र ध्यानोंके त्यागसे जिसने चित्तकी उसका मन सदा चंचल रहता है। प्रसन्नता प्राप्त की हो, जो इस लोक और परलोक [४.] धर्मध्यान के योग्य ध्याता दोनोंकी अपेक्षासे रहित हो, जिसने सभी परिषहोंको सहन किया हो, जो क्रियायोगका अनुष्ठान किये का.अ./मू./४७९ धम्मे एयग्गमणो जो णवि हुए हो (सिद्धभक्ति आदि क्रियाओंके अनुष्ठानमें वेदेदि पंचहा विसयं। वेरग्गमओ णाणी धम्मज्झाणं तत्पर हो ।) ध्यानयोगमें जिसने उद्यम किया हो हवे तस्स ।४७९। ... जो ज्ञानी पुरुष धर्ममें (ध्यान लगानेका अभ्यास किया हो), जो एकाग्रमन रहता है, और इन्द्रियोंके विषयोंका अनुभव महासामर्थ्यवान हो, और जिसने अशुभलेश्याओं नहीं करता, उनसे सदा विरक्त रहता है, उसीको तथा बुरी भावनाओंका त्याग किया हो । (ध्याता/ धर्मध्यान होता है। (दे० ध्याता/२ में ज्ञा./४/६) २/में म.पु.) त. अनु./४१-४५ तत्रासनीभवन्मुक्तिः किंचि और भी दे० धर्मध्यान/१/२ जिनाज्ञापर श्रद्धान दासाद्य कारणम्। विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यक्त करनेवाला, साधुका गुण कीर्तन करनेवाला, दान, सर्वपरिग्रहः ।४१। अभ्येत्य सम्यगाचार्य दीक्षां श्रुत, शील, संयममें तत्पर, प्रसन्नचित्त, प्रेमी, जैनेश्वरीं श्रितः । तपोसंयमसम्पन्नः प्रमाद शुभयोगी, शास्त्राभ्यासी, स्थिरचित्त, वैराग्यभावनामें रहिताशयः।४२। सम्यग्निर्णीत-जीवादिध्येय भानेवाला ये सब धर्मध्यानीके बाह्य व अन्तरंगचिह्न वस्तुव्यवस्थितिः। आर्तरौद्रपरि-त्यागाल्लब्ध हैं। शरीरकी नीरोगता, विषयलम्पटता व निष्ठुरताका चित्तप्रसक्तिकः ।४३। मुक्तलोकद्वयापेक्षः अभाव, शुभगन्ध, मल-मूत्र अल्प होना, इत्यादि सोढाऽशेषपरीषहः। अनुष्ठितक्रियायोगो ध्यानयोगे __ भी उसके बाह्यचिह्न है। कृतोद्यमः ।४४। महासत्त्वः परित्यक्तदुर्लेश्याऽशुभभावनाः। इतीदृग्लक्षणो ध्याता दे० धर्मध्यान/१/३ वैराग्य, तत्त्वज्ञान, परिग्रहत्याग, __ परिषहजय, कषायनिग्रह आदि धर्मध्यानकी सामग्री है। _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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