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ध्यानशतकम् बलशाली और शूर, तथा चौदह या दस या नौपूर्वको चा.सा./१६७/२ ध्याता... गुप्तेन्द्रियश्च । धारण करनेवाला होता है वह ध्याता है । (म.पु./ प्रशस्तध्यानका ध्याता मन-वचन-कायको वशमें २१/८५)
रखनेवाला होता है। म.पु./२१/८६-८७ दूरोत्सारितदुर्ध्यानो दुर्लेश्याः ज्ञा./४/६ मुमुक्षुर्जन्मनिर्विण्ण: शान्तचित्तो वशी परिवर्जयन्। लेश्याविशुद्धि मालम्ब्य स्थिरः। जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे भावयन्नप्रमत्तताम् ।८६। प्रज्ञापारमितो योगी प्रशस्यते ।६। मुमुक्षु हो, संसारसे विरक्त हो, ध्याता स्याद्धीबलान्वितः। सूत्रार्थालम्बनो धीरः शान्तचित्त हो, मनको वश करनेवाला हो, शरीर सोढाशेषपरीषहः ।८७। अपि चोद्भूतसंवेगः व आसन जिसका स्थिर हो, जितेन्द्रिय हो, चित्त प्राप्तनिर्वेदभावतः। वैराग्यभावनोत्कर्षात् पश्यन् संवरयुक्त हो (विषयोंमें विकल न हो), धीर हो, भोगानतर्पकान् ।८८। सम्यग्ज्ञानभावनापास्त- अर्थात् उपसर्ग आनेपर न डिगे, ऐसे ध्याताकी ही मिथ्याज्ञानतमोघनः। विशुद्धदर्शनापोढगाढ- शास्त्रोंमें प्रशंसा की गयी है। (म.पु./२१/९०मिथ्यात्वशल्यकः ।८९। ... आर्त व रौद्र ध्यानोंसे ९५); (ज्ञा./२७/३) दूर, अशुभ लेश्याओंसे रहित, लेश्याओंकी
[३.] ध्याता न होने योग्य व्यक्ति विशुद्धतासे अवलम्बित, अप्रमत्त अवस्थाकी भावना भानेवाला ।८६। बुद्धिके पारको प्राप्त, योगी,
ज्ञा./४/श्लोक नं. केवल भावार्थ- जो मायाचारी बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर, वीर, समस्त
हो ।३२। मुनि होकर भी जो परिग्रहधारी हो ।३३। परीषहोंको सहनेवाला ।८७। संसारमें भयभीत, वैराग्य
ख्याति लाभ पूजाके व्यापारमें आसक्त हो ।३५ । भावनाएँ भानेवाला, वैराग्यके कारण भोगोपभोगकी
'नौ सौ चूहे खाके बिल्ली हजको चली' इस सामग्रीको अतृप्तिकर देखता हुआ ।८८ ।
उपाख्यानको सत्य करनेवाला हो।४२। इन्द्रियोंका सम्यग्ज्ञानकी भावनासे मिथ्याज्ञानरूपी गाढ
दास हो ।४३। विरागताको प्राप्त न हुआ हो ।४४। अन्धकारको नष्ट करनेवाला, तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन
ऐसे साधुओंको ध्यानकी प्राप्ति नही होती। द्वारा मिथ्या शल्यको दूर भगाने वाला, मुनि ध्याता ज्ञा./४/६२ एते पण्डितमानिनः शमदमस्वाध्यायहोता है ।८९। (दे० ध्याता/४ त. अनु.) चिन्तायुताः, रागादिग्रहवञ्चिता यतिगुणप्रध्वंसद्र.सं./मू./५७ तवसुदवदवं चेदा झाणरह धुरंधरो
कृष्णाननाः। व्याकृष्टा विषयैर्मदैः प्रमुदिताः हवे जम्हा। तम्हा तत्तिय णिरदा तल्लद्धीए सदा
शङ्काभिरङ्गीकृता,न ध्यानं न विवेचनं न च तप: होह। ... क्योंकि तप, व्रत और श्रुतज्ञानका धारक ।
कर्तुं वराकाः क्षमाः ।६२। जो पण्डित तो नहीं आत्मा ध्यानरूपी रथको धराको धारण करनेवाला है, परन्तु अपनेको पण्डित मानते हैं, और शम. होता है, इस कारण हे भव्यपुरुषो! तुम उस
दम, स्वाध्यायसे रहित तथा रागद्वेषादि पिशाचोंसे ध्यानकी प्राप्तिके लिए निरन्तर तप, श्रुत और व्रतमें
वंचित हैं, एवं मुनिपनेके गुण नष्ट करके अपना तत्पर होओ ।
मुँह काला करनेवाले हैं, विषयोंसे आकर्षित, मदोंसे
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