SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् १६३ करनेवाला होता है, वह ध्याता होता है, क्योंकि या नौपूर्वका जाननेवाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण इतना ज्ञान हुए विना, जिसने नौ पदार्थोको भली लक्षणोंसे युक्त कहलाता है ।१०१। इसके सिवाय प्रकार नहीं जाना है, उसके ध्यानको उत्पत्ति नहीं अल्पश्रुतज्ञानी अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणीके पहले हो सकती है प्रश्न-चौदह, दस और नौ पूर्वोके पहले धर्मध्यान धारण करनेवाला उत्कृष्टमुनि भी बिना स्तोकग्रन्थसे भी नौ पदार्थविषयकज्ञान देखा उत्तम ध्याता कहलाता है ।१०२। जाता है। उत्तर- नहीं, क्योंकि स्तोकग्रन्थसे बीजबुद्धि स.सा./ता../१०/२२/११ ननु तर्हि मुनि ही पूरा जान सकते है, उनके सिवा दूसरे स्वसंवेदनज्ञानबलेनास्मिन् कालेऽपि श्रुतकेवली मुनियोंको जाननेका कोई साधन नहीं है। (अर्थात् भवति। तन; यादृशं पूर्वपुरुषाणां शुक्लध्यानरूपं जो बीजबुद्धि नहीं हैं वे बिना श्रुतके पदार्थोका स्वसंवेदनज्ञानं तादृशमिदानीं नास्ति किन्तु ज्ञान करनेको समर्थ नहीं है) और द्रव्यश्रुतका ध्यानयोग्यमस्तीति। ... प्रश्र- स्वसंवेदनयहाँ अधिकार नहीं है। क्योंकि ज्ञानके उपलिंगभूत ज्ञानके बलसे इसकालमें भी श्रुतकेवली होने चाहिए? पुद्गलके विकारस्वरूप जडवस्तुको श्रुत (ज्ञान) उत्तर- नहीं, क्योंकि जिस प्रकारका शुक्लध्यानरूप मानने में विरोध आता है । प्रश्न स्वसंवेदन पूर्वपुरुषोंको होता था, उस प्रकारका स्तोकद्रव्यश्रुतसे नौ पदार्थोको पूरी तरह जानकर इस कालमें नहीं होता। केवल धर्मध्यान योग्य शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियोंके ध्यान नहीं होता है। माननेसे मोक्षका अभाव प्राप्त होता है? उत्तरस्तोकज्ञानसे यदि ध्यान होता है तो वह क्षपक व द्र.सं/टी./५७/२३२/९ यथोक्तं दशचतुर्दशउपशमश्रेणीके अयोग्य धर्मध्यान ही होता है पूर्वगतश्रुतज्ञानेन ध्यानं भवति तदप्युत्सर्गवचनम। (धवलाकार पृथकत्ववितर्कवीचारको धर्मध्यान मानते अपवाद व्याख्यानेन पुनः पञ्चसमितित्रिहैं- दे० धर्मध्यान/२/४-५) परन्तु चौदह, दस गुप्तिप्रतिपादकसारभूतश्रुतेनापि ध्यानं भवति। और नौ पूर्वोके धारीतो धर्म और शुक्ल दोनों ही ... तथा जो ऐसा कहा है, कि 'दश तथा चौदह ध्यानोंके स्वामी होते हैं। क्योंकि ऐसा माननेमें पूर्वतक श्रुतज्ञानसे ध्यान होता है, वह उत्सर्ग वचन कोई विरोध नहीं आता। इसलिए उन्हींका यहाँ हैं। अपवाद व्याख्यानसे तो पाँचसमिति और निर्देश किया गया है। तीनगुप्तिको प्रतिपादन करनेवाले सारभूतश्रुतज्ञानसे भी ध्यान होता है । (पं.का./ता.वृ./१४६/२१२/ म. पु./२१/१०१-१०२ स चतुर्दशपूर्वज्ञो ९); (और भी दे० श्रुतकेवली) दशपूर्वधरोऽपि वा। नवपूर्वधरो वा स्याद् ध्याता सम्पूर्णलक्षणः ।१०१। श्रुतेन विकलेनापि स्याद् [२.] प्रशस्तध्यानसामान्य योग्य ध्याता ध्याता सामग्री प्राप्य पुष्कलाम्। क्षपकोपशम- ध. १३/५,४,२६/६४/६ तत्थ उत्तमसंघडणो श्रेण्योः उत्कृष्टं ध्यानमृच्छति ।१०४। ... यदि ओघबलो ओघसूरो चोद्दस्सपुव्वहरो वा (दस) ध्यान करनेवाला मुनि चौदहपूर्वका, या दशपूर्वका, णवपुबहरो वा। ... जो उत्तम संहननवाला, निसर्गसे Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy