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ध्यानशतकम् इसलिए अनन्त शक्तिवाले चिन्मात्र परम आत्माका (५.) व्यवहारध्यान निश्चयका साधन है एकाग्रसंचेतनलक्षण ध्यान होता है (प्र.सा./त.प्र./
द्र.सं./टी./४९/२०९/४ निश्चयध्यानस्य १९६), (नि.सा./ता.वृ./११९)
परम्परया कारणभूतं यच्छुभोपयोगलक्षणं प्र.सा./त.प्र./२४३ यो हि न खलु ज्ञानात्मान- व्यवहारध्यानम् । निश्चयध्यानका परम्परासे कारणभूत मात्मानमेकमग्रं भावयति सोऽवश्यं ज्ञेयभूतं जो शुभोपयोगलक्षण व्यवहारध्यान है। (द्र.सं./टी./ द्रव्यमन्यदासीदति।.. तथाभूतश्च बध्यत एव न तु ५३/२२१/२) मुच्यते । जो वास्तवमै ज्ञानात्मक आत्मारूप एक (६.) निश्चय व व्यवहारध्यानमें साध्यअग्रको नहीं भाता, वह अवश्य ज्ञेयभूत अन्य
साधकपनेका समन्वय द्रव्यका आश्रय करता है और ऐसा होता हआ बन्धको ही प्राप्त होता है, परन्तु मुक्त नहीं होता ।।
ध. १३/५,४,२६/२२/६७ विसमं हि समारोहइ
दव्वालंबणो जहा पुरिसो । सुत्तादिकयालंबो तह नि.सा./ता.वृ./१४४, यः खलु.. व्यावहारिक
झाणवरं समारुहइ।२२। जिस प्रकार कोई पुरुष धर्मध्यानपरिणत: अत एव चरणकरणप्रधान...
नसैनी (सीढी) आदि द्रव्यके आलम्बनसे किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं
विषमभूमिपरभी आरोहण करता है, उसी प्रकार स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयतः परमात्म
ध्याता भी सूत्र आदिके आलम्बनसे उत्तम ध्यानको तत्त्वविश्रान्तरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च
प्राप्त होता है। (भ.आ./वि./१८७७/१६८१/१२) न जानीते, अत: परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्तः। जो वास्तवमें व्यावहारिकधर्मध्यानमें परिणत रहता
ज्ञा./३३/२,४ अविद्यावासनावेशविशेषविवशात्महै, इसलिए चरणकरणप्रधान है; किन्तु वह निरपेक्ष
नाम् । योज्यमानमपि स्वस्मिन् न चेतः कुरुते तपोधन साक्षात् मोक्षके कारणभूत स्वात्मश्रित
स्थितिम् ।२। अलक्ष्यं लक्ष्यसम्बन्धात् आवश्यककर्मकी, निश्चयसे परमात्मतत्त्वमें
स्थूलात्सूक्ष्म विचिन्तयेत्। सालम्बाञ्च निरालम्बं विश्रान्तिरूप निश्चयधर्मध्यानको तथा शुक्लध्यानको नहीं
तत्त्ववित्तत्त्वमञ्जसा ।४। आत्माके स्वरूपको यथार्थ जानता; इसलिए परद्रव्यमें परिणत होनेसे उसे
जानकर, अपनेमें जोडता हुआ भी अविद्याकी अन्यवश कहा गया है ।
वासनासे विवश है आत्मा जिनका, उनका चित्त
स्थिरताको नहीं धारण करता है ।२। तब लक्ष्यके (४.) व्यवहारध्यान कथंचित् अज्ञान है ।
सम्बन्धसे अलक्ष्यको अर्थात् इन्द्रियगोचरके सम्बन्धसे स.सा./आ./१९१ एतेन कर्मबन्धविषय- इन्द्रियातीत पदार्थोंको तथा स्थूलके आलम्बनसे चिन्ताप्रबन्धात्मकविशुद्धधर्मध्यानान्धबुद्धयो सूक्ष्मको चिन्तवन करता है। इस प्रकार बोध्यन्ते । इस कथनसे कर्मबन्धमें चिन्ताप्रबन्ध- सालम्बध्यानसे निरालम्बके साथ तन्मय हो जाता स्वरूप विशुद्ध धर्मध्यानसे जिनकी बुद्धि अन्धी है ।४। (और भी दे० चारित्र/७/१०) है, उनको समझाया है ।
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