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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २६१ पं.का./ता.वृ./१५२/२२०/९ अयमत्र भावार्थ:- रूपसे पराश्रित धर्म्यध्यानके बहिरंग सहकारीपनेसे मैं प्राथमिकानां चित्तस्थिरीकरणा) विषया- अनन्तज्ञानादि स्वरूप हूँ ऐसे आत्माश्रित धर्मध्यानको भिलाषरूपध्यानवञ्चनार्थं च परम्परया मुक्तिकारणं प्राप्त होता है, तत्पश्चात् आगमकथित क्रमसे असंयत पञ्चापरमेष्ठयादि पर द्रव्यं ध्येयं भवति, सम्यग्दृष्टि आदि अप्रमत्तसंयत पर्यन्तके चार दृढतरध्यानाभ्यासेन चित्ते स्थिरे जाते सति गुणस्थानोंमेसे किसी एक गुणस्थानमें दर्शनमोहका क्षय निजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयम्।... इति करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो जाता है। तदनन्तर परस्परसापेक्षनिश्चयव्यवहारनयाभ्यां साध्य- अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें प्रकृति व पुरुष (कर्म साधकभावं ज्ञात्वा ध्येयविषये विवादो न कर्तव्यः। व जीव) सम्बन्धी निर्मल विवेकज्योतिरूप प्रथम प्राथमिक जनोंको चित्त स्थिर करनेके लिए तथा शुक्लध्यानका अनुभव करनेके द्वारा वीतरागचारित्रको विषयाभिलाषरूप दुर्ध्यानसे बचनेके लिए परम्परा प्राप्त करके मोहका क्षय करता है, और अन्तमें मुक्ति के कारणभूत पंचपरमेष्ठी आदि परद्रव्य ध्येय भावमोक्ष प्राप्त कर लेता है। होते हैं। तथा दृढतर ध्यानके अभ्यास द्वारा चित्तके (७.) निश्चय व व्यवहार ध्यानमें निश्चय शब्दकी स्थिर हो जानेपर निजशुद्ध आत्मस्वरूप ही ध्येय आंशिक प्रवृत्ति होता है। ऐसा भावार्थ है। इस प्रकार परस्पर सापेक्ष निश्चय-व्यवहारनयोंके द्वारा साध्यसाधक भावको द्र. सं./टी./५५-५६/२२४/६ निश्चयशब्देन तु जानकर ध्येयके विषयमें विवाद नहीं करना प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो चाहिए । (द्र.सं./टी./५५/२२३/१२), (प.प्र./ ग्राह्यः। निष्पन्नयोगपुरुषापेक्षया तु शुद्धोपयोगटी./२/३३/१५४/२) लक्षणविवक्षितैकदेशशुद्ध निश्चयो ग्राह्यः । विशेषनिश्चयः पुनरग्रे वक्ष्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थ: पं. का./ता.वृ./१५०/२१७/१४ यदायं जीव... ५५। 'मा चिट्ठह.... ।' इदमेवात्मसुखरूपे सरागसम्यग्दृष्टिभूत्वा पञ्चपरमेष्ठिभक्त्यादिरूपेण तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टध्यानं भवति। ... पराश्रितधर्म्यध्यानबहिरङ्ग सहकारित्वेना 'निश्चय' शब्दसे अभ्यास करनेवाले पुरषकी अपेक्षासे नन्तज्ञानादि स्वरूपोऽहमित्यादि भावना व्यवहार रत्नत्रयके अनुकूल निश्चय ग्रहण करना स्वरूपमात्माश्रितं धर्म्यध्यानं प्राप्य आगमकथित चाहिए और जिसको ध्यान सिद्ध हो गया है उस क्रमेणासंयतसम्यग्दृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्टयमध्ये पुरुषकी अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षित एकदेशशुद्ध . क्वापि गुणस्थाने दर्शनमोहक्षयेण क्षायिकसम्यक्त्वं निश्चय ग्रहण करना चाहिए। विशेष निश्चय आगेके कृत्वा तदनन्तरमपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु प्रकृति सूत्रमें कहा है, कि मन, वचन, कायाकी प्रवृत्तिको पुरुषनिर्मलविवेकज्योतिरूपप्रथमशुक्ल रोककर आत्माके सुखरूपमें तन्मय हो जाना निश्चयसे ध्यानमनुभूय....मोहक्षपणं कृत्वा... भावमोक्षं प्राप्नोति । अनादिकालसे अशुद्ध हुआ यह जीव परमउत्कृष्ट ध्यान है। (विशेष दे० अनुभव/५/७) सरागसम्यग्दृष्टि होकर पंचपरमेष्ठी आदिकी भक्ति आदि (८.) निरीहभावसे किया गया सभी उपयोग एक आत्म उपयोग ही है Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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