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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २५९ ज्ञाता, द्रष्टा, उदासीन, देहपरिमाण व आकाशवत् ति. प/९/२१,४० दंसणणाणसमग्गं ज्झाणं णो अमूर्तिक हूँ (१५३। दृष्ट जगत्, न इष्ट है न द्विष्ट अण्णद व्यासंसत्तं । जायदि णिजरहे दू किन्तु उपेक्ष्य है ।१५७। इस प्रकार अपने आत्माको सभावसहिदस्स साहुस्स ।२१। ज्झाणे जदि अन्य शरीरादिकसे भिन्न करके अन्य कुछ भी णियआदा णाणादो णावभासदे जस्स । ज्झाणं चिन्तवन न करे ।१५९। यह चिन्ताभाव तुच्छाभाव होदि ण तं पुण जाण पमादो, हु मोहमुच्छा रूप नहीं है, बल्कि समतारूप आत्माके स्वसंवेदनरूप वा।४०। शुद्धस्वभावसे सहित साधुका दर्शन-ज्ञानसे है ।१६० । (ज्ञा./३१/२०-३७)। परिपूर्ण ध्यान निर्जराका कारण होता है, अन्य द्र.टी./४८/२०४/११ मैं अनन्त ज्ञानादिका धारक द्रव्योंसे संसक्त वह निर्जराका कारण नहीं होता तथा अनन्त सुखरूप हूं, इत्यादि भावना अन्तरंग ।२१। जिस जीवके ध्यानमें यदि ज्ञानसे निज धर्मध्यान है । (पं.का./ता.वृ./१५०-१५१/२१८/१)। आत्माका प्रतिभास नहीं होता है तो वह ध्यान नहीं है। उसे प्रमाद, मोह अथवा मूर्छा ही जानना (२.) व्यवहारधर्मध्यान का लक्षण चाहिए ।४०। (त.अनु./१६९) त. अनु./१४१ व्यवहार नयादेवं ध्यानमुक्तं आराधनासार/८३ यावद्विकल्पः कश्चिदपि जायते पराश्रयम्। इस प्रकार व्यवहारनयसे पराश्रित योगिनो ध्यानयुक्तस्य। तावन्न शून्यं ध्यानं, चिन्ता धर्मध्यानका लक्षण कहा है। (अर्थात् धर्मध्यान वा भावनाथवा ।८३। जब तक ध्यानयुक्त योगीको सामान्य व उसके आज्ञाविचय अपायविचय आदि किसी प्रकारका भी विकल्प उत्पन्न होता रहता है, भेद सब व्यवहारध्यानमें गर्भित हैं।) तब तक उसे शून्य ध्यान नहीं है, या तो चिन्ता (३.) निश्चय ही ध्यान सार्थक है व्यवहार नहीं। है या भावना है। (और भी दे० धर्म्यध्यान/३/१) प्र.सा./१९३-१९४ देहा वा दविणा वा सुहदुक्खा ज्ञा./२८/१९ अविक्षिप्तं यदा चेत: स्वतत्त्वाभिमुखं वाघसत्तुमित्तजणा। जीवस्स ण संति धुवा भवेत्। मनस्तदैव निर्विघ्ना ध्यानसिद्धिरुदाहता धुवोवओगअप्पगो अप्पा ।१९३। जो एवं ।१९। जिस समय मुनिका चित्त क्षोभरहित हो जाणित्ताज्झादि परं अप्पगं विसुद्धप्पा। आत्मस्वरूपके सम्मुख होता है, उस काल ही ध्यानकी साकारोऽनाकार: क्षपयति स मोहदुर्ग्रन्थिम् सिद्धि निर्विघ्न होती है । ।१९४। शरीर धन, सुख, दुःख अथवा शत्रु, प्र.सा./त.प्र./१९४ अमुना यथोदितेन विधिना मित्रजन ये सब ही जीवके कुछ नहीं हैं, ध्रुव तो शुद्धात्मानं ध्रुवमधिगच्छतस्तस्मिन्नेव प्रवृत्तेः उपयोगात्मक आत्मा है ।१९३। जो ऐसा जानकर शुद्धात्मत्वं स्यात् । ततोऽनन्तशक्तिचिन्मात्रस्य विशुद्धात्मा होता हुआ परमात्माका ध्यान करता परमस्यात्मन एकाग्रसंचेतनलक्षणं ध्यानं स्यात् । है, वह साकार हो या अनाकार, मोहदुर्ग्रन्थिका इस यथोक्त विधिके द्वारा जो शुद्धात्माको ध्रुव जानता क्षय करता है । है, उसे उसीमें प्रवृत्तिके द्वारा शुद्धात्मत्व होता है, Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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