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ध्यानशतकम सो वि अण्णाणी ।७६। इस भरतक्षेत्रमें दुषमकाल द्र. सं./मृ./५५-५६ जं किंचिवि चिंतंतो अर्थात् पंचमकालमें भी आत्मस्वभावस्थित साधुको णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लक्ष्ण य एयत्तं धर्मध्यान होता है। जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी तदाहु तं णिच्छयं झाणं ५५। मा चिट्ठह मा है। (र. सा./६०); (त. अनु./८२)
जंपह मा चिंतह किंवि जेण होई थिरो । अप्पा ज्ञा./४/३७ दुःषमत्वादयं काल: कार्यसिदधेर्न अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं ५६। साधकम्। इत्युक्त्वा स्वस्य चान्येषां कैश्चिद्ध्यानं ... ध्ययम एकाग्र चित्त होकर जिस-किसा भा निषिध्यते ।३७। कोई-कोई साधु ऐसा कहकर ।
पदार्थका ध्यान करता हुआ साधु जब निस्पृहवृत्ति अपने तथा परके ध्यानका निषेध करते हैं कि
होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय होता इस दुःषमा पंचमकालमें ध्यानकी योग्यता किसीमें है ५५ । हे भव्य पुरुषो! तुम कुछ भी चेष्टा मत भी नहीं है। (उन अज्ञानियोंके ध्यानकी सिद्धि करो, कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत कैसे हो सकती है?)
विचारो, अर्थात् काय, वचन व मन तीनोंकी
प्रवृत्तिको रोको; जिससे कि तुम्हारा आत्मा अपने (५.) पंचमकालमें शुक्लध्यान नहीं पर धर्मध्यान
आत्मामें स्थिर होवे। आत्मामें लीन होना परमध्यान अवश्य सम्भव है
है ।५६। त. अनु./८३ अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं
का. अ./मू./४८२ वजिय-सयल-वियप्पो जिनोत्तमाः। धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां
अप्पसरूवे मणं णिरुंधतो । जं चिंतदि साणंदे प्राग्विवर्तिनाम् ।८३।.. यहाँ (भरतक्षेत्रमें) इस
तं धम्मं उत्तमं ज्झाणं ।४८२। सकल विकल्पों (पंचम) कालमें जिनेन्द्रदेव शुक्लध्यानका निषेध करते
को छोडकर और आत्मस्वरूप में मनको रोककर हैं परन्तु श्रेणीसे पूर्ववर्तियोंको धर्मध्यान बतलाते हैं
आनन्दसहित जो चिन्तन होता है वही उत्तम । (द्र. सं/टी./५७/२३१/११) (पं. का./ता.
धर्मध्यान है। वृ./१४६/२११/१७)।
त.अनु./श्लो.नं./ भावार्थ- निश्चयादधुना [६.] निश्चय-व्यवहारधर्मध्यान निर्देश
स्वात्मालम्बनं तन्निरुच्यते ।१४१। पूर्वं श्रुतेन (१.) निश्चयधर्मध्यानका लक्षण
संस्कारं स्वात्मन्यारोपयेत्ततः। तत्रैकाग्र्यं समासाद्य मो.पा./म्./८४ पुरिसायारो अप्पा जोई न किंचिदपि चिन्तयेत् ।१४४। अब निश्चयनयसे वरणाणदंसणसमग्गा । जो ज्झायदि सो जोई।
स्वात्मलम्बनस्वरूपध्यानका निरूपण करते हैं ।१४१ । पावहरो भवदि णिदं दो ८४। ... जो योगी श्रुतके द्वारा आत्मामें आत्मसंस्कारको आरोपित शुद्धज्ञान-दर्शन समग्र पुरुषाकार आत्माको ध्याता
करके, तथा उसमें ही एकाग्रताको प्राप्त होकर है वह निर्द्वन्द्व तथा पापोंका विनाश करनेवाला अन्य कुछ भी चिन्तवन न करे ।१४४। शरीर होता है।
और मैं अन्य-अन्य हैं ।१४९। मैं सदा सत्, चित्,
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