________________
परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२५५ अनुत्तरविमानोमें तथा सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न होते हैं। उसका फल है। (२.) धर्मध्यानका फल संवर निर्जरा व (३.) धर्म्यध्यानका फल मोक्ष कर्मक्षय
त. सू./९/२९ परे मोक्षहेतू ।२९। अन्तके दो ध. १३/५,४,२६/२६,५७/६८,७७ णवकम्मा- ध्यान (धर्म्य व शुक्लध्यान) मोक्षके हेतु हैं । णादाणं, पोराणवि णिजरासुहादाणं। चारित्त
चा सा./१७२/२ संसारलतामूलोच्छेदनहेतुभूतं भावणाए झाणमयत्तेण य समेइ ।२६। जह वा
प्रशस्तध्यानम्। तद्विविधं, धर्म्य शुक्लं चेति। घणसंघाया खणेण पवणाहया विलिजंति।
संसारलताके मूलोच्छेदका हेतुभूत प्रशस्तध्यान है। ज्झाणप्पवणोवहया तह कम्मघणा विलिजंति
यह दो प्रकारका है-धर्म्य व शुक्ल। ।५७। चारित्रभावनाके बलसे जो ध्यानमें लीन है, उसके नूतन कर्मोका ग्रहण नहीं होता, पुराने
(४.) एक धर्मध्यानसे मोहनीय के उपशम व कर्मोकी निर्जरा होती है और शुभकर्मोका आस्रव
क्षय दोनों होनेका समन्वय होता है ।२६। (ध/१३/५/४/२६/५६/७७- दे० ध. १३/५,४,२६/८१/३ मोहणीयस्स उवसमो ऊपरवाला शीर्षक) अथवा जैसे मेघपटल पवनसे जदि धम्मज्झाणफलो तो ण क्खदो, एयादो ताडित होकर क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं, वैसे दोण्णं कजाणमुप्पत्तिविरोहादो । ण धम्मज्झाही (धर्म्य) ध्यानरूपी पवनसे उपहत होकर कर्ममेघ णादो अणेयभेयभिण्णादो अणेयकजाणमुप्पतीए भी विलीन हो जाते हैं ।५७।
विरोहाभावादो! प्रश्न-मोहनीय कर्मका उपशम करना (दे० आगे धर्मध्यान/६/३ में ति. प.). यदि धर्म्यध्यानका फल हो तो इसीसे मोहनीयका (स्वभावसंसक्त मुनिका ध्यान निर्जराका हेतु है।)
क्षय नहीं हो सकता । क्योंकि एक कारण से दो (दे० पीछे/धर्मध्यान/३/५/२) : (सूक्ष्मसाम्पराय
कार्योकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है? उत्तरगुणस्थानके अन्तमें कर्मोकी सर्वोपशमना तथा
नहीं, क्योंकि धर्म्यध्यान अनेक प्रकारका है। इसलिए मोहनीकर्मका क्षय धर्म्यध्यानका फल है।)
उससे अनेक प्रकारके कार्योकी उत्पत्ति मानने में
कोई विरोध नहीं आता। ज्ञा./२२/१२ ध्यानशुद्धिं मनःशुद्धिः करोत्येव न केवलम्। विच्छिनत्त्यपि निःशडूं कर्मजालानि (५.) धर्मध्यान से पुण्यास्रव व मोक्ष दोनों देहिनाम् ।१५। मनकी शुद्धता केवल ध्यानकी होनेका समन्वय शुद्धताको ही नहीं करती है, किन्तु जीवोंके १. साक्षात् नही परम्परा मोक्षका कारण है कर्मजालको भी निःसन्देह काटती है।
ज्ञा./३/३२ शुभध्यानफलोद्भूतां श्रियं त्रिदशपं.का./ता.वृ./१७३/२५३/२५ पर उद्धृत
संभवाम्। निर्विशन्ति नरा नाके क्रमाद्यान्ति परं एकाग्रचिन्तनं ध्यानं फलं संवरनिर्जरे । एकाग्र पदम ।३२। मनुष्य शुभध्यानके फलसे उत्पन्न हुई चिन्तवन करना तो (धर्म्य) ध्यान है और संवरनिर्जरा स्वर्ग की लक्ष्मीको स्वर्गमें भोगते हैं और क्रमसे
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org