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________________ २५६ ध्यानशतकम् मोक्षको प्राप्त होते है । और भी दे० आगे धर्मध्यान/ चरमशरीरी योगीके तो उस भवमें मुक्ति होती है ५/२)। और जो चरम शरीरी नहीं है उनके क्रमसे मुक्ति २. अचरम शरीरीयोंको स्वर्ग और चरम होती है ।२२४। शरीरियोंको मोक्षप्रदायक है । ३. क्योंकि मोक्षका साक्षात् हेतुभूत शुक्लध्यान ध. १३/५,४,२६/७७/१ किंफलमिदं धम्मझाणं। धर्म्यध्यान पूर्वक ही होता है। अक्खवएसु विउलामरसुहफलं गुणसेडीए ज्ञा./४२/३ अथ धामतिक्रान्तः शुद्धि कम्मणिजरा फलं च। खवएसु पुण असंखेज __ चात्यन्तिकी श्रितः। ध्यातुमारभते वीरः गुणसेडीए कम्मपदेसणिजरणफलं सुहकम्माण- शुक्लमत्यन्तनिर्मलम् ।३। इस धर्मध्यानके अनन्तर मुक्कस्साणुभागविहाणफलं च । अत एव धर्म्यध्यानसे अतिक्रान्त होकर अत्यन्त शुद्धताको धादनपेतं धHध्यानमिति सिद्धम्। प्रश्न- प्राप्त हुआ धीर वीर मुनि अत्यन्त निर्मल शुक्लध्यान इस धर्म्यध्यानका क्या फल है? उत्तर-अक्षपक के ध्यावनेका प्रारम्भ करता है। विशेष दे० धर्मध्यान जीवोंको (या अचरम शरीरियोको) देवपर्याय सम्बन्धी /६/६। (पं० का/१५०) - (दे० 'समयसार')विपुलसुख मिलना उसका फल है, और गुणश्रेणी धर्मध्यान कारण समयसार है और शुक्लध्यान में कर्मोकी निर्जरा होनाभी उसका फल है। तथा कार्यसमयसार । क्षपक जीवोंके तो असंख्यात गुणश्रेणीरूपसे (६.) परपदार्थो के चिन्तवनसे कर्मक्षय कैसे कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा होना और शुभकर्मोके उत्कृष्ट सम्भव है अनुभागका होना उसका फल है। अत एव जो ध. १३/५,४,२६/७०/४ कधं ते णिग्गुणा धर्मसे अनपेत है वे धर्मध्यान है यह बात सिद्ध कम्मक्खयकारिणो। ण तेसिं रागादिणिरोहे होती है। णिमित्तकारणाणं तदविरोहादो। प्रश्न - जब कि त. अनु./१९७, २२४ ध्यातोऽर्हत्सिद्धरूपेण नौ पदार्थ निर्गुण होते हैं, अर्थात् अतिशय रहित चरमाङ्गस्य मुक्तये। तद्धयानोपात्तपुण्यस्य स होते हैं, ऐसी हालतमें वे कर्मक्षयके कर्ता कैसे एवान्यस्य मुक्तये ।१९७। ध्यानाभ्यासप्रकर्षेण । हो सकते है? उत्तर- नहीं, क्योंकि वे रागादि के त्रुट्यन्मोहस्य योगिनः। चरमाङ्गस्य मुक्तिः निरोध करनेमें निमित्त कारण हैं, इसलिए उन्हें स्यात्तदैवान्यस्य च क्रमात् ।२२४। अर्हद्रूप अथवा कर्मक्षयका निमित्त मानने में विरोध नहीं आता । सिद्धरूपसे ध्यान किया गया (यह आत्मा) चरमशरीरी (अर्थात् उन जीवादि नौ पदार्थोके स्वभावका ध्याताके मुक्तिका और उससे भिन्न अन्य ध्याताके चिन्तवन करनेसे साम्यभाव जागृत होता है।) भुक्ति (भोग) का कारण बनता है, जिसने उस [५.] पंचमकालमें भी धर्मध्यानकी सफलता ध्यानसे विशिष्ट पुण्यका उपार्जन किया है ।१९७ । ध्यानके अभ्यासकी प्रकर्षतासे मोहको नाश करनेवाले (१.) यदि ध्यानसे मोक्ष होता है तो अब क्यों नही होता Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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