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________________ २५४ ध्यानशतकम् प्र./२१/१३१ साधारणमिदं ध्येयं ध्यान- कर्मकी सर्वोपशमना देखी जाती है। ४. तीन योधर्म्यशुक्लयोः। विषयकी अपेक्षा तो अभीतक घातिकर्मोका समूल विनाश करना एकत्ववितर्कजिन ध्यान करने योग्य पदार्थोंका (दे० धर्मध्यान अवीचार(शुक्ल)ध्यानका फल है, परन्तु मोहनीयका सामान्य व विशेष के लक्षण) वर्णन किया गया विनाश करना धर्मध्यानका फल है। क्योंकि, है, वे सब धर्मध्यान और शुक्लध्यान इन दोनों ही सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिमसमयमें उसका ध्यानोंके साधारण ध्येय है। (त.अनु./१८०) विनाश देखा जाता है। २. स्वामी, स्थितिकाल, फलव विशुद्धिकी अपेक्षा म.पु./२१/१३१ विशुद्धिस्वामिभेदात्तु तद्विशेषोऽवभेद है धार्यताम्। ५ इन दोनोंमें स्वामी व विशुद्धिके ध.१३/५,४,२६/७५/८ तदो सकसायाकसाय भेदसे परस्पर विशेषता समझनी चाहिए। (त.अनु./ सामिभेदेण अचिरकालचिरकालावट्ठाणेण य १८०) दोण्णं ज्झाणाणं सिद्धो भेआ। दे० धर्मध्यान/४/५/३ ६. धर्मध्यान शुक्लध्यानका ध.१३/५,४,२६/८०/१३ अट्ठावीसभेयभिण्णमो- कारण है। हणीयस्स सव्वुवसमावट्ठाणफलें पुधतविदक्कीचार- दे० समयसार-धर्मध्यान कारण समयसार है और मुक्कज्झाणं। मोहसब्बुसमो पुण धम्मज्झाणफलं, शुक्लध्यान कार्य समयसार है। सकसायत्तणेण धम्मज्झाणिणो सुहुमसांपराइयस्स [४.] धर्मध्यानका फल पुण्य व मोक्ष तथा चरिमसमए मोहणीयस्स सव्वुवसमुवलंभादो । उनका समन्वय तिण्णं घादिकम्माणं णिम्मूलविणासफलमेयत्तविदक्कअवीचारज्झाणं। मोहणीय विणासो पुण। (१.) धर्मध्यानका फल अतिशय पुण्य धम्मज्झाणफलं; सुहुमसांपरायचरिमसमए तस्स ध. १३/५,४,२६/५६/७७ होंति सुहासवसंवरविणासुवलंभादो । १. सकषाय और अकषायरूप णिजरामरसुहाई विउलाई। झाणवरस्स फलाई स्वामीके भेदसे तथा-(चा.सा./२१०/४)।२ सुहाणुबंधाणि धम्मस्स। उत्कृष्ट धर्मध्यानके अचिरकाल और चिरकाल तक अवस्थिति, रहनेके शुभास्रव, संवर, निर्जरा, और देवोंका सुख ये कारण इन दोनों ध्यानोंका भेद सिद्ध है। (चा.सा./ शुभानुबन्धी विपुल फल होते है। २१०/४)। ३. अट्ठाईस प्रकारके मोहनीय कर्मकी ज्ञा./४१/१६ अथावसाने स्वतनुं विहाय ध्यानेन सर्वोपशमना हो जाने पर उसमें स्थित रखना संन्यस्तसमस्तसङ्गाः। ग्रैवेयकानुत्तरपुण्यवासे पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक शुक्लध्यानका फल है, सर्वार्थसिद्धौ च भवन्ति भव्याः। जो भव्य पुरुष परन्तु मोहनीयका सर्वोपशमन करना धर्मध्यानका इस पर्यायके अन्त समयमें समस्त परिग्रहोंको फल है । क्योंकि कषायसहित धर्मध्यानके छोडकर धर्मध्यानसे अपना शरीर छोडते हैं, वे सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानक अन्तिम समयमें मोहनीय पुरुष पुण्यके स्थानरूप ऐसे गौवेयक वा Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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