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परिशिष्टम् - २२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् ध.१३/५,४,२७/८८/३ ट्ठियस्स णिसण्णस्स णिव्वण्णस्स वा साहुस्स कसाएहि सह देहपरिचागो काउसग्गो णाम । णेदं ज्झाणस्संतो णिवददि; बारहाणुवेक्खासु वावदचितस्स वि काओस्सग्गुववत्तदो । एवं तवोकम्मं परुविदं । स्थित या बैठे हुए कायोत्सर्ग करनेवाले साधुका कषायोंके साथ शरीरका त्याग करना कायोत्सर्ग नामका तपः कर्म है। इसका ध्यानमें अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि जिसका बारह अनुप्रेक्षाओंके चिन्तवनमें चित्त लगा हुआ है, उसके भी कायोत्सर्गकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस प्रकार तपःकर्मका कथन समाप्त हुआ ।
(४.) माला जपना आदि ध्यान नहीं रा. वा./९/२७/२४/६२७/१० स्यान्मतं मात्रकालपरिगणनं ध्यानमितिः तन्त्र; किं कारणम् ? ध्यानातिक्रमात् । मात्राभिर्यदि कालगणनं क्रियते ध्यानमेव स्याद्वैयग्र्यात् । प्रश्न- समयमात्राओंका गिनना ध्यान है । उत्तर नहीं क्योंकि एसा मानस ध्यानकलक्षणका अतिक्रमण हो जाता है, क्योंकि इसमें एकाग्रता नहीं है । गिनती करनेमें व्यग्रता स्पष्ट ही है।
(५.) धर्मध्यान व शुक्लध्यानमें कथंचित् भेदाभेद विषय व स्थिरता आदिकी अपेक्षा दोनों समान हैं
१.
त. अनु. / ६४ सुद्धवजोगेण पुणो धम्मं सुक्कं च होदि जीवस्स । तम्हा संवरहेदु झाणोत्ति विचिंतये णि । ६४ । १ शुद्धोपयोगसे ही जीवको धर्मध्यान व शुक्लध्यान होते है । इसलिए संवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए।
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२५३ (दे० मोक्षमार्ग / २ / ४); (त. अनु. / १८० )
ध. १३/५,४,२६/७४ /१ जदि सव्वो समयसब्भावो धम्मज्झाणस्सेव विसओ होदि तो सुक्कज्झाणेण णिव्विसएण होदव्वमिदि । ण एस दोसो दोणं पि ज्झाणाणं विसयं पडिभेदाभावादो । जदि एवं तो दोण्णं ज्झाणाणमेयत्तं पसज्जदे । कुदो। ... खज्तो वि... फाडिज्जतो वि... कवलिज्वंतो वि... लालिज्यंतओ वि जिस्से उवत्थाए ज्झेयादो ण चलदि सा जीवावत्था ज्झाणं णाम । एसो वि त्थिरभावो उभयत्थ सरिसो, अण्णाहाज्झाण-भावाणुववत्तीदो ति । एत्थ परिहारो वुदे सचं एदेहि दोहि विसरूवेहि दोण्णं ज्झाणाणं भेदाभावादो।
प्रश्न- २ यदि समस्त समयसद्भाव ( संस्थानविचय) धर्म्यध्यानका ही विषय है तो शुक्लध्यानका कोई विषय शेष नहीं रहता ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों ही ध्यानोंमें विषयकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है । (चा. सा. / २१० / ३) प्रश्न- यदि ऐसा है तो दोनों ही ध्यानोंमें अभेद प्राप्त होता है ? क्योंकि (व्याघ्रादि द्वारा) भक्षण किया गया भी, ( करोंतों द्वारा ) फाडा गया भी, ( दावानल द्वारा ) ग्रसा गया भी, (अप्सराओं द्वारा) लालित किया गया भी, जो जिस अवस्थामें ध्येयसे चलायमान नही होता, वह जीवकी अवस्था ध्यान कहलाती है । इस प्रकारका यह भाव दोनों ध्यानों में समान है, अन्यथा ध्यानरूप परिणामकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । उत्तर- यह बात सत्य हैं, कि इन दोनों प्रकार के स्वरूपोंकी अपेक्षा दोनों ही ध्यानमें कोई भेद नहीं है ।
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