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________________ २५२ ध्यानशतकम् अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। उपशान्त व क्षीण कहलाती है। कषायगुणस्थानमें शुक्लध्यान होना इष्ट है। ज्ञा./२५/१६ एकाग्रचिन्तानिरोधो यस्तद्ध्यान[३.] धर्मध्यान व अनुप्रेक्षादिमें अन्तर भावना परा। अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्झैरभ्यु(१.) ध्यान, अनुप्रेक्षा, भावना व चिन्तामें पगम्यते ।१६। ज्ञानका एक ज्ञेयमें निश्चल ठहरना अन्तर ध्यान है और उससे भिन्न भावना है, जिसे विज्ञजन अनुप्रेक्षा या अर्थचिन्ता भी कहते हैं। भ.आ./मू./१७१०/१५४३ (दे. धर्मध्यान/१/ १/२)-धर्मध्यान आधेय है और अनुप्रेक्षा उसका भा. पा. टी/७८/२२९/१ एकस्मिनिष्टे वस्तुनि आधार है। अर्थात् धर्मध्यान करते समय निश्चला मतिर्ध्यानम् । आर्तरौद्रधर्मापेक्षया तु अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन किया जाता है। (भ.आ./ मतिश्चञ्चला अशुभा शुभा वा सा भावना कथ्यते, मू./१७१४ ।१५४५)। चित्तं चिन्तनम् अनेकनययुक्तानुप्रेक्षणं ख्यापनं श्रुतज्ञानपदालोचनं वा कथ्यते न तु ध्यानम्। ध. १३/५,४,२६/गा. १२/६४ जं थिरमज्झ किसी एक इष्टवस्तुमें मतिका निश्चल होना ध्यान वसाणं तं ज्झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होइ है। आर्त, रौद्र और धर्मध्यानकी अपेक्षा अर्थात् भावणा वा अणुपेहा वा अहव चिन्ता ।१२। जो इन तीनों ध्यानोंमें मति चंचल रहती है उसे वास्तवमें परिणामोंकी स्थिरता होती है उसका नाम ध्यान है, और अशुभ या शुभभावना कहना चाहिए। अनेकनययुक्त जो चित्तका एक पदार्थसे दूसरे पदार्थमें चलायमान होना अर्थका पुनः पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा, ख्यापन है वह या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है, या चिन्ता है श्रुतज्ञानके पदोंकी आलोचना कहलाता है, ध्यान ।१२। (म. पु./२१/९) । (दे. शुक्लध्यान/१/४)। नहीं। रा.वा./९/३६/१२/६३२/१४ स्यादेतत् अनुप्रेक्षा (२.) अथवा अनुप्रेक्षादिको अपायविचय अपि धर्मध्यानेऽन्तर्भवन्तीति पृथगासामु धर्मध्यानमें गर्भित समझना चाहिए पदेशोऽनर्थक इति; तत्र; किं कारणम् ? ज्ञानप्रवृत्तिविकल्पवात् । अनित्यादिविषयचिन्तनं म.पु./२१/१४२ तदपायप्रतिकारचिन्तोपायानुयदा ज्ञानं तदा अनुप्रेक्षाव्यपदेशो भवति, यदा चिन्तनम् । अत्रैवान्तर्गतं ध्येयम् अनुप्रेक्षातत्रैकाग्रचिन्तानिरोधस्तदा धर्म्यध्यानम्। प्रश्न दिलक्षणम् ।१४२। अथवा उन अपायों(दुःखों) अनुप्रेक्षाओंका भी ध्यानमें ही अन्तर्भाव हो जाता के दूर करनेकी चिन्तासे उन्हें दूर करनेवाले अनेक है, अत उनका पृथक् व्यपदेश करना निरर्थक उपायोंका चिन्तवन करना भी अपायविचय कहलाता है । उत्तर- नहीं, अनित्यादि विषयोंने बार-बार है। बारह अनुप्रेक्षा तथा दशधर्म आदिका चिन्तवन चिन्तनधारा चालू रहती है तब वे ज्ञानरूप है करना इसी अपायविचय नामके धर्मध्यानमें शामिल समझना चाहिए । और जब उनमें एकाग्र चिन्तानिरोध होकर चिन्तनधारा केन्द्रित हो जाती है, तब वे ध्यान (३.) ध्यान व कायोत्सर्गमें अन्तर Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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