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________________ २४७ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् विपाकविचयं विदुः ।४५। ज्ञानावरणादि आठ णाई । उप्पादट्ठिदिभंगादिपज्जाया जे य दव्वाणं कर्मोके प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभागरूप ।४३। पंचत्थिकायमइयं लोयमणाइणिहणं चारप्रकारके बन्धोंके विपाकफलका विचार करना,सो जिणक्खादं । णामादिभेय-विहियं तिविहमहोविपाकविचय नामका पाँचवाँ धर्मध्यान है। (चा.सा./ लोग-भागादि ।४४। खिदिवलयदीवसायरण१७४/२)। यरविमाण भवणादिसंठाणं। वोमादिपडिट्ठाणं ८. विरागविचय णिययं लोगट्ठिदिविहाणं ।४५। उवजोगलक्खण मणाइणिहणमत्थंतरं सरी- रादो । जीवमरुविं ह. पु./५६/४६ शरीरमशुचिर्भोगा किम्पाक कारिं भोई स सयस्स कम्मस्स ।४६। तस्स फलपाकिनः। विरागबुद्धिरित्यादि विरागविचयं य सकम्मजणियं जम्माइजलं कसायपायालं । स्मृतम् ।४६। शरीर अपवित्र है और भोग वसणसयसावमीणं मोहावत्तं महाभीमं ।४७। किंपाकफलके समान तदात्व मनोहर हैं, इसलिए णाणमयकण्णहारं वरचारि-तमयमहापोयं । इनसें विरक्तबुद्धिका होना ही श्रेयस्कर है, इत्यादि संसारसागरमणोरपारमसुहं विचिंतेजो ।४८। चिन्तन करना विरागविचय नामका छठा धर्म्यध्यान सव्वणयसमूहमयं ज्झायजो समयसब्भावं ।४९। है। (चा.सा./१७१/१) ज्झाणोवरमे वि मुणी णिञ्चमणिञ्चादि चिंतणा९. संस्थानविचय परमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणे किह (देखो आगे पृथक् शीर्षक) व पुव्वं ।५०। १. तीन लोकोंके संस्थान, प्रमाण और आयु आदिका चिन्तवन करना संस्थानविचय १०. हेतुविचय नामका चौथा धर्मध्यान है। (स.सि./९/३६/४५०/ ह.पु./५६/५० तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वाद- ३): (रा.वा./९/३६/१०/६३२/९): (भ.आ/वि./ प्रक्रियाश्रयात्। सन्मार्गाश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं १७०८/१५३६/२३): (त.सा./७/४३); (ज्ञा./ हि तत् ।५०। और तर्कका अनुसरण पुरुष ३६/१८४, १८६) (द्र. सं. टी. ४८/२०३/२) स्याद्वादको प्रक्रियाका आश्रय लेते हुए समीचीन । २. जिनदेवके द्वारा कहे गये छह द्रव्यों के लक्षण, मार्गका आश्रय करते हैं, इस प्रकार चिन्तवन संस्थान, रहनेका स्थान, भेद, प्रमाण उनकी उत्पाद, करना सो हेतुविचय नामका दसवाँ धर्म्यध्यान है। स्थिति और व्यय आदिरूप पर्यायोंका चिन्तवन (चा.सा./२०२/३) करना ।४३। पंचास्तिकायका चिन्तवन करना ।४४ । (६.) संस्थानयिचय धर्मध्यानका स्वरूप (दे० पीछे जीव-अजीवविचयके लक्षण) ३. अधोलोक आदि भागरूपसे तीन प्रकारके (अधो, मध्य व ध. १३/५,४,२६/गा. ४३-५०/७२/१३ तिण्णं ऊर्ध्व) लोकका, तथा पृथिवी, वलय, द्वीप, सागर, लोगाणं संठाणपमाणाआउयादिचितणं संठाण नगर, विमान, भवन आदिके संस्थानों (आकारों) विचयं णाम चउत्थं धम्मज्झाणं । एत्थ गाहाओ का एवं उसका आकाशमें प्रतिष्ठान, नियत और जिणदेसियाइ लक्खण-संठाणासण-विहाणमा Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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