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________________ २४६ न्तोपरमे सति सर्वज्ञप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावादिनो जिना:' इति गहनपदार्थश्रद्धानादर्थावधारणाज्ञाविचयः । अथवा स्वयं विदितपदार्थतत्वस्य सतः परं प्रति पिपादयिषोः स्वसिद्धान्ताविरोधेन तत्त्वसमर्थनार्थं तर्कनयप्रमाणयोजनपर: स्मृतिसमन्वाहारः सर्वज्ञाज्ञाप्रकाशनार्थत्वादाज्ञाविचय इत्युच्यते ।४४९ । उपदेष्टा आचार्योंका अभाव होनेसे, स्वयं मन्दबुद्धि होनेसे, कर्मोका उदय होनेसे और पदार्थोके सूक्ष्म होनेसे, तथा तत्त्वके समर्थनमें हेतु तथा दृष्टान्तका अभाव होनेसे सर्वज्ञप्रणीत आगमको प्रमाण करके, यह इसी प्रकार है, क्योंकि जिन अन्यथावादी नहीं होते, इस प्रकार गहनपदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थका अवधारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । अथवा स्वयं पदार्थोके रहस्यको जानता है, और दूसरोंके प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्तके अविरोध द्वारा तत्त्वका समर्थन करनेके लिए, उसके जो तर्क नय और प्रमाण की योजनारूप निरन्तर चिन्तन होता है, वह सर्वज्ञकी आज्ञाको प्रकाशित करनेवाला होनेसे आज्ञाविचय कहा जाता है। (रा.वा./९/ ३६/४-५/६३०/८); (ह.पु. / ५६/४९); (चा.सा./ २०१/५); (त.सा./७/४०); (ज्ञा. / ३३/६-२२); (द्र.सं./टी./४८/२०२/६) । ५. जीवविचय ह.पु./५६/४२-४३ अनादिनिधना जीवा द्रव्यार्थादन्यथान्यथा । असंख्येयप्रदेशास्ते स्वोपयोगत्वलक्षणाः । ४२ । अचेतनोपकरणाः स्वकृतोचितभोगिनः । इत्यादिचेतनाध्यानं यज्जीवविचयं हि तत् । द्रव्यार्थिकनयसे जीव Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम अनादिनिधन है, और पर्यायार्थिकनयसे सादिसनिधन है, असंख्यातप्रदेशी है, उपयोग लक्षणस्वरूप है, शरीररूप अचेतन उपकरणसे युक्त है, और अपने द्वारा किये गये कर्मके फलको भोगते है... इत्यादि रूपसे जीवका जो ध्यान करता है वह जीवविचय नामका तीसरा धर्मध्यान है (चा.सा./ १७३/५) ६. भवविचय ह.पु./५६/४७ प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् । दुःखात्मेत्यादिचिन्ता तु भवादिविचयं पुनः । ४७ । चारो गतियोंमें भ्रमण करनेवाले इन जीवोंको मरनेके बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है। यह भव दुःखरूप है। इस प्रकार चिन्तवन करना सो भवविचयनामका सातवाँ धर्म्यध्यान है । (चा.सा./१७६/९) ७. विपाकविचय भ. आ./मू./१७१३ / १५४५ एयाणेयभवगदं जीवाणं पुण्णपावकम्मफलं । उदओदीरण संकमबन्धे मोक्खं च विचिणादि । जीवोंको जो एक और अनेकभवमें पुण्य और पापकर्मका फल प्राप्त होता है उसका तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्षका चिन्तवन करता है। ( मू.आ./ ४०१/ ); (ध.१३/५,४,२६ / गा. ४२ / ७२) (स.सि./९/३६/४५०/२) (रा.वा./९/३६/८९/६३० - ६३२ में विस्तृत कथन ) (भ.आ./ वि. /१७०८/१५३६/२१), (म.पु. / २१/१४३-१४७) (त.सा./ ७ / ४२); (ज्ञा० / ३५ / १-३१); (द्र.सं./ टी./४८/२०२/१० ) । ह. पु./५६/४५ यातुर्विधबन्धस्य कर्मणोऽष्टविधस्य तु विपाकचिन्तनं धर्म्यं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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