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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२४५ ज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपे-युरिति ४. आज्ञाविचय स्मृतिसमन्वाहारोऽपाय-विचयः।-मिथ्यादृष्टि जीव भ. आ./म./१७११/१५४३ पंचेव अस्थिकाया जन्मान्ध पुरुषके समान सर्वज्ञप्रणीतमार्गसे विमुख छजीवणिकाए दव्वमण्णे य। आणागन्भे भावे होते हैं, उन्हे सन्मार्गका परिज्ञान न होनेसे मोक्षार्थी
आणाविचएण विचिणादि ।। पाँच अस्तिकाय, पुरुषोंको दूरसे ही त्याग देते हैं, इस प्रकार सन्मार्गके
छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार अपायका चिन्तवन करना अपायविचय धर्म्यध्यान
आज्ञाग्राह्य अन्य जितने पदार्थ है, उनका यह है। अथवा-ये प्राणी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और
आज्ञाविचय ध्यानके द्वारा चिन्तवन करता है। मिथ्याचारित्रसे कैसे दूर होंगे इस प्रकार निरन्तर
(मू.आ./३९९); (ध.१३/५,४,२६/गा.३८/७१) चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है। (रा.वा./
(म.पु./२१/१३५-१४०)। ९/३६/६-७/६३०/१६) (म.पु./२१/१४१
ध. १३/५,४,२६/गा. ३५-३७/७१ १४२); (भ.आ./वि/१७०८/-१५३६/१८); (त.सा./७/४१); (ज्ञा./३४/१-१७)।
तत्थमइदुब्बलेण य। तबिजाइरियविरहदो वा
वि । णेयगहत्तणेण य णाणावरदिएणं च ।३५। ह. पु./५६/३६-४१ संसारहेतवः प्रायस्त्रियोगानां
हेदूदाहरणासंभवे य सारसुदुजाणु जो । प्रवृत्तयः। अपायो वर्जनं तासां स मे
सवणुवयमवितत्थं तहाविहं चिंतए मदिमं ॥३६ । स्यात्कथमित्यलम् ।३९। चिन्ताप्रबन्धसंबन्धः
अणुवगहपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जयप्पवरा । शुभलेश्यानुरञ्जितः। अपायविचयाख्यं तत्प्रथम
जियरायदोसमोहा ण अण्णहावाइणो तेण ।३७। धर्म्यमभीप्सितम् ।४०। उपायविचयं तासां
मतिकी दुर्बलता होनेसे, अध्यात्मविद्याके जानकार पुण्यानामात्मसाक्रिया। उपाय: स कथं मे स्यादिति
आचार्योका विरह होनेसे, ज्ञेयकी गहनता होनेसे, सङ्कल्पसन्ततिः ।४१। मन, वचन और काया
ज्ञानको आवरण करनेवाले कर्मकी तीव्रता होनेसे, और इन तीन योगोंकी प्रवृत्ति ही, प्रायः संसारका कारण
हेतु तथा उदाहरण सम्भव न होनेसे,नदी और है सो इन प्रवृत्तियोंका मेरे अपाय अर्थात् त्याग किस
सुखोद्यान आदि चिन्तवन करने योग्य स्थानमें प्रकार हो सकता है, इस प्रकार शुभलेश्यासे अनुरंजित
मतिमान् ध्याता सर्वज्ञप्रतिपादित मत सत्य है ऐसा जो चिन्ताका प्रबन्ध है वह अपायविचय नामका
चिन्तवन करे ।३५-३६ । यतः जगतमें श्रेष्ठ जिन प्रथम धर्म्यध्यान माना गया है ।३९-४०। पुण्यरूप
भगवान,जो उनको नहीं प्राप्त हुए ऐसे अन्य जीवोंका योगप्रवृत्तियोंको अपने आधीन करना उपाय कहलाता
भी अनुग्रह करनेमें तत्पर रहते हैं, और उन्होंने रागहै, वह उपाय मेरे किस प्रकार हो सकता है, इस
द्वेष और मोहपर विजय प्राप्त कर ली है, इसलिए वे प्रकारके संकल्पोंकी जो सन्तति है वह उपायविचय
अन्यथावादी नही हो सकते १३७ । नामका दूसरा धर्म्यध्यान है ।४१ । (चा.सा./१७३/ ३), (भ.आ./वि./१७०८/१५३६/१७) (द्र.सं/ स.सि./९/३६/४४९/६ उपदेष्टुरभावान्मन्दबुद्धिटी/४८/२०२/९)
त्वात्कर्मोदयात्सूक्ष्मत्वाश्य पदार्थानां हेतुदृष्टा
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