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________________ २४८ ध्यानशतकम् लोकस्थिति आदि भेदका चिन्तवन करे ।४४- दे० स्वर्ग) १० (सिद्धलोकका तथा सिद्धोके स्वरूपका ४५। (मू.आ./मू./१७१४/१५४५/) (मू. आ./ चिन्तवन करे ।१८३। ११. (अन्तमें कर्ममलसे ४०२); (ह. पु./५६/४८०); (म. पु./२१/ रहित अपनी निर्मल आत्माका चिन्तवन करे) १४८-१५०) (ज्ञा./३६/१-१०, ८२-९०) (विशेष १८५ । दे. लोक) ४ जीव उपयोग लक्षणवाला है, अनादि (७.) संस्थानविचयके पिण्डस्थ आदि भेदोंका निधन है, शरीरसे भिन्न है, अरूपी है, तथा निर्देश अपने कर्मोका कर्ता और भोक्ता है ।४६। (म.पु./ २१/१५१) (और दे० पीछे जीवविचय' का लक्षण) ज्ञा./३७/१ तथा भाषाकारकी उत्थानिका५ उस जीवके कर्मसे उत्पन्न हुआ जन्म, मरण पिण्डस्थं च पदस्थं च स्वरूपस्थं रूपवर्जिआदि यही जल है, कषाय यही पाताल है, सेंकडो तम् । चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करैः व्यसनरूपी छोटे मत्स्य है; मोहरूपी आवर्त है ।१। इस संस्थानविचय नामा धर्मध्यानमें चार भेद और अत्यन्त भयंकर है, ज्ञानरूपी कर्णधार है, कहे हैं, उनका वर्णन किया जाता है-जो भव्यरूपी उत्कृष्ट चारित्रमय महापोत है। ऐसे इस अशुभ कमलोंका प्रफुल्लित करनेके लिए सूर्यके समान और अनादि अनन्त (आध्यात्मिक) संसारका योगीश्वर हैं उन्होंने ध्यानको पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ चिन्तवन करे। ४७-४८। (म.पु./२१/१५२ और रुपातीत ऐसे चार प्रकारका कहा है (भा.पा/ १५३) ६. बहुत कहनेसे क्या लाभ,यह जितना टी./८६/२३६/१३ द्र.सं./टी.४८/२०५ ३ में जीवादि पदार्थोका विस्तार कहा है, उस सबसे उद्घृत - पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं युक्त और सर्वनयसमूहमय समयसद्भावका स्वात्मचिन्तनम् । रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं (द्वादशांगमय सकल श्रुतका) ध्यान करे ।४९। निरञ्जनम् । (म.पु./२१/१५४)७ ऐसा ध्यान करके उसके द्र. सं. /टी./४९/२०९/७ पदस्थपिण्डस्थअन्तमें मुनि निरन्तर अनित्यादि-भावनाओंके रूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं चिन्तवनमें तत्पर होता है। जिससे वह पहलेकी दर्शयामीति । = मन्त्रवाक्योमें स्थिति पदस्थ, भाँति धर्मध्यानमें सुभावितचित्त होता है ।५०। निजात्माका चिन्तवन पिंडस्थ, सर्वचिद्रूपका चिन्तवन (भ.आ./मू. १७१४/१५४५) (मू. आ./४०२) रूपस्थ और निरंजनका (त्रिकाली शुद्धात्माका) ध्यान (चा.सा./१७७/१) (विरागविचयका लक्षणो) नोट- रूपातीत है । भा.पा./टी.८६/२३६ पर उद्धृत) (अनुप्रेक्षाओंके भेद व लक्षण -दे० अनुप्रेक्षा) ज्ञा./ पदस्थ, पिंडस्थ व रूपस्थमें अर्हत सर्वज्ञ ध्येय ३६/श्लो. नं. ८ (नरकके दुःखोंका चिन्तवन होते हैं। नोट-उपरोक्त चारभेदोंमें पिंडस्थध्यान तो करे) । ११-८१। (विशेष देखो नरक) अर्हत भगवानकी शरीराकृतिका विचार करता है, (भवविचयका लक्षण) १ (स्वर्गके सुख तथा देवेन्द्रोंके पदस्थध्यान पंचपरमेष्ठीके वाचक अक्षरों व मन्त्रोंका वैभव आदिका चिन्तवन । ९०-१८२। (विशेष अनेक प्रकारसे विचार करता है, रूपस्थध्यान निज Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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