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________________ २३८ ध्यानशतकम् करना, हिंसाकी ही कथा करना, और स्वभावसे २६/६)। जो अन्यका बुरा चाहे तथा परको कष्ट ही हिंसक होना ये हिंसानन्द रौद्रध्यानके चिह्न आपदारूप बाणों से भेदा हुआ दुःखी देखकर माने गये हैं ।४९। कठोर वचन आदि बोलना सन्तष्ट हो तथा गणों से गरुवा र अथवा द्वितीय रौद्रध्यानके चिह्न है ।५०। स्तेयानन्द और अन्यकी सम्पदा देखकर द्वेष रूप हो, अपने हृदयमें संरक्षणानन्द रौद्रध्यानके बाह्यचिह्न संसारमें प्रसिद्ध शल्यसहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यानका चिह्न हैं ।५२। भौंह टेढो हो जाना, मुखका विकृत हो है ।१३। हिंसाके उपकरण शस्त्रादिकका संग्रह जाना, पसीना आने लगना, शरीर कंपने लगना करना, क्रूरजीवोंका अनुग्रह करना और और नेत्रोंका अतिशय लाल हो जाना आदि निर्दयतादिकभाव रौद्रध्यानके देहधारियोंके बाह्यचिह्न रौद्रध्यानके बाह्यचिह्न हैं ।५३। (ज्ञा./२६/३७- हैं ।१५। ३८) [५.] रौद्रध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या चा. सा. /१७०/१ परानुमेयं परुषनिष्ठुरा म. पु./२१/४४ प्रकृष्टतरदुर्लेश्यात्रयोपोबक्रोशननिर्भर्त्सनबन्धतर्जनताडनपीडनपरदाराति लबृंहितम्। अन्तमुहूर्तकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते क्रमणादिलक्षणम् । कठोरवचन, मर्मभेदीवचन, ।।४४।। परोक्षज्ञानत्वादोदयिकभावं वा आक्रोशवचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना भावलेश्याकषायप्राधान्यात्। चा. सा.)। यह रौद्रध्यान ताडन करना तथा परस्त्रीपर अतिक्रमण करना अत्यन्त अशुभ है। कृष्ण आदि, तीन बूरी लेश्याओंके आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है। बलसे उत्पन्न होता है। अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहता ज्ञा./२६/५-१५ अनारतं निष्करुणस्वभावः है और पहले आर्तध्यानके समान इसका स्वभावत: क्रोधकषायदीप्तः। मदोद्धत: पापमतिः क्षायोपशमिकभाव होता है ।४४। (ज्ञा./२६/ कुशील: स्यान्नास्तिको यः स हि रौद्रधामा ।५।। ३६,३९)। अथवा भावलेश्या और कषायोंकी प्रधानता अभिलषति नितान्तं यत्परस्यापकारं व्यसन- होने से औदयिक भाव है। (चा.सा./१७०/५) विशिखभिन्नं वीक्ष्य संतोषमेति । यदिह गुणगरिष्ठं रौद्रध्यानका फल - दे० आर्त/२ । द्वेष्टि दृष्ट्वान्यभूतिं, भवति हृदि सशल्यास्तद्धि रौद्रस्य लिङ्गम् ।१३। हिंसोपकरणादानं क्रूर [६.] रौद्रध्यानमें सम्भव गुणस्थान सत्त्वेष्वनुग्रहम् । निस्त्रिंशतादि-लिङ्गानि रौद्रे त.सू./९/३५... रौद्रमविरतदेशविरतयोः ।३५ । बाह्यानि देहिनः ।१५। ... जो पुरुष निरन्तर वह रौद्रध्यान अविरत और देशविरतको होता है। निर्दय स्वभाववाला हो, तथा स्वभावसे ही क्रोध म.पु./२१/४३ षष्ठात्तु तद्गुणस्थानात् प्राक् कषायसे प्रज्वलित हो तथा मदसे उद्धत हो, जिसकी पञ्चगुणभूमिकम् । यह ध्यान छठवें गुणस्थानकें बुद्धि पापरूप हो, तथा कुशील हो, व्यभिचारी हो, पहले-पहले पाँच गणस्थानोंमें होता है। (चा. सा./ नास्तिक हो वह रौद्रध्यानका घर है।५ । (ज्ञा./ १७१/१); (ज्ञा./२६/३६)। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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