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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २३९ द्र. सं./टी./४८/२०१/९ रौद्रध्यानं... तारतम्येन वे सब अनिष्ट हैं । साधक साम्यताका अभ्यास मिथ्यादृष्ट्यादिपञ्चमगुणस्थानवर्तिजीवसम्भवम् । करनेके लिए जिस ध्यानको ध्याता है, वह धर्मध्यान यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तकके है। अभ्यासदशा समाप्त हो जाने पर पूर्ण जीवोंके तरतमतासे होता है। ज्ञाताद्रष्टाभावरूप शक्लध्यान हो जाता है। इसलिए [७.] देशव्रतीको कैसे सम्भव है किसी अपेक्षा धर्म व शुक्ल दोनों ध्यान समान है। धर्मध्यान दो प्रकारक है- बाह्य व आध्यात्मिक। स. सि./९/३५/४४८/८ अविरतस्य भवतु वचन व कायपरसे सर्व प्रत्यक्ष होने वाला बाह्य रौद्रध्यानं, देशविरतस्य कथम् ? तस्यापि और मानसिक चिन्तवनरूप आध्यात्मिक है। वह हिंसाद्यावेशाद्वित्तादिसंरक्षणतन्त्रत्वाच कदाचिद् आध्यात्मिक भी आज्ञा, अपाय आदिके चिन्तवनके भवितुमर्हति । तत्पुनारकादीनामकारणं; भेदसे दसभेदरूप है। ये दसों भेद जैसा कि उनके सम्यग्दर्शनसामर्थ्यात् । प्रश्न-रौद्रध्यान अविरत लक्षणों परसे प्रगट है, आज्ञा, अपाय, विपाक व को हो, देशविरतको कैसे हो सकता है । उत्तर संस्थान इन चारमें गर्भित हो जाते हैं- उपायविचय हिंसादिके आवेशसे या वित्तादिके संरक्षण के परतन्त्र तो अपायमें समा जाता है और जीव, अजीव, होने से कदाचित् उसको भी हो सकता है। किन्तु भव, विराग व हेतुविचय-संस्थानविचयमें समा जाते देशविरतको होनेवाला रौद्रध्यान नरकादि दुर्गतियोंका हैं। तहाँ इन सबको भी दो में गर्भित किया जा कारण नहीं हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शनका ऐसा ही सकता है-व्यवहार व निश्चय । आज्ञा, अपाय सामर्थ्य है। (रा.वा./९/३५/३/६२९/१९); (ज्ञा./ व विपाक तो परावलम्ब ही होने से व्यवहार ही २६/३६ भाषा)। है पर संस्थानविचय चार भेदरूप है- पिंडस्थ [८.] साधुको कदापि सम्भव नहीं (शरीराकृतिका चिन्तवन); पदस्थ (मन्त्राक्षरोंका स.सि./९/३५/४४८/१० संयतस्य तु न चिन्तवन), रूपस्थ (पुरुषाकार आत्माका चिन्तवन) भवत्येव; तदारम्भे संयमप्रच्युतेः । परन्तु यह और रूपातीत अर्थात् मात्र ज्ञाताद्रष्टा-भाव । यहाँ संयतको तो होता ही नही है; क्योंकि उसका पहले तीन धर्मध्यानरूप है और अन्तिम शुक्लध्यानआरम्भ होनेपर संयमसे पतन हो जाता है। (रा.वा./ रूप । पहले तीनोंमें 'पिण्डस्थ' व 'पदस्थ' तो ९/३५/४/६२९/२२)। परावलम्बी होनेसे व्यवहार है और 'रूपस्थ' स्वावलम्बी होने से निश्चय है। निश्चयध्यान ही ३. धर्मध्यान वास्तविक है पर व्यवहार भी उसका साधन होने से इष्ट है। मनको एकाग्र करना ध्यान है। वैसे तो किसी न किसी विषयमें हर समय ही मन अटका रहनेके १ धर्मध्यान व उसके भेदोका सामान्य निर्देश कारण व्यक्तिको कोई न कोई ध्यान बना ही धर्मध्यान सामान्यके लक्षण । रहता है, परन्तु रागद्वेषमूलक होने से श्रेयोमार्गमें धर्मध्यान के चिह्न । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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