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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २३७ रक्षार्थमभ्युद्यते-यत्सङ्कल्पपरम्पराम् । वितनुते हूँ ।२६। दूसरोंके द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन प्राणीह रौद्राशयः। यद्यालम्ब्य महत्त्वमुन्नतमना समझो क्योंकि मैं जब चाहूँ उनको शरण करके राजेत्यहं मन्यते तत्तुर्यं प्रवदन्ति निर्मलधियो रौद्रं जा सकता हूँ ।२७-२८। इत्यादिरुप चिन्तन भवाशंसिनाम् ।२९। १. जीवोंके समूहको अपनेसे चौर्यानन्द रौद्रध्यान है । ४. यह प्राणी रौद्र(क्रूर)चित्त तथा अन्यके द्वारा मारे जाने पर तथा पीडित होकर बहुत आरम्भ परिग्रहोंमें रक्षार्थ नियमसे उद्यम किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करै और उसमें ही संकल्पकी परम्पराको विस्तारे करनेके सम्बन्ध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ताका अवलम्बन करके जाये उसे हिंसानन्दनामा रौद्रध्यान कहते हैं ।४। उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मैं राजा हूँ, ऐसे बलि आदि देकर यशलाभका चिन्तवन करना ।७। परिणामको निर्मल बुद्धिवाले महापुरुष संसारकी वांछा जीवोंको खण्ड करने व दग्ध करने आदिको करनेवाले जीवोंको चौथा रौद्रध्यान है ।२९। मैं देखकर खुश होना ।८। युद्धमें हार-जीत सम्बन्धी बाहुबलसे सैन्यबलसे सम्पूर्ण पुर ग्रामोंको दग्ध करके भावना करना ।१०। वैरीसे बदला लेनेकी भावना असाध्य ऐश्वर्यको प्राप्त कर सकता हूँ ।३०। मेरे ।११। परलोकमें बदला लेनेकी भावना करना ।१२। धन पर दृष्टि रखने वालोंको मैं क्षणभरमें दग्ध हिंसानन्दी रौद्रध्यान है । (म.पु./२१/४५)। २. कर दूंगा ।३१। मैंने यह राज्य शत्रुके मस्तक पर जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओंके समूहसे पाँव रखकर उसके दुर्गमें प्रवेश करके पाया है पापरूपी मैलसे मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा ३३।। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादिके करै उसे निश्चय करके मृषानन्दनामा रौद्रध्यान कहा प्रयोगों द्वारा भी मैं समस्त शत्रुसमूहको नाशकरके है ।१६। जो ठगाई के शास्त्र रचने आदिके द्वारा अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ ।३४ । दूसरोंको आपदामें डालकर धन आदि संचय करे इस प्रकार चिन्तवन करना विषयसंरक्षणानन्द ।१७-१९। असत्य बोलकर अपने शत्रुको दण्ड है । दिलाये ।२०। वचनचातुर्यसे मनवांछित प्रयोजनाका [४.रौद्रध्यान के बाह्यचिह्न सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियोंको ठगनेकी ।२१-२२। भावनाएँ बनाये रखना मृषानन्दी रौद्रध्यान है । म.पु./२१/४९-५३ अनानृशंस्य हिंसोपकर३. जीवोंको चौर्यकर्मके लिए निरन्तर चिन्ता उत्पन्न णादानतत्कथाः। निसर्गहिंस्रता चेति लिङ्गान्यस्य हो तथा चोरी कर्म करके भी निरन्तर अदुल हर्ष । व स्मृतानि वै ।४९। .... वाक्पारुष्या-दिलिङ्ग मानें आनन्दित हो अन्य कोई चोरीके द्वारा परधनको तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते ॥५०॥... प्रतीतलिङ्गहरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्मसे मेवैतद् रौद्रध्यानद्वयं भुवि...।५२। बाह्यन्तु उत्पन्न हुआ रौद्रध्यान कहते हैं, यह ध्यान अतिशय लिङ्गमस्याहुः भूभङ्गं मुखविक्रियाम् । निन्दाका कारण है।२५। अमुक स्थानमें बहुत प्रस्वेदमङ्गकम्पनं च नेत्रयोश्चातिताम्रताम् ।५३। धन है जिसे मैं तुरत हरण करके लानेमें समर्थ क्रूर होना, हिंसाके उपकरण तलवार आदिको धारण Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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