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________________ २३६ ध्यानशतकम् [२.] रौद्रध्यान के भेद मृषानन्द रौद्रध्यान है। जबरदस्ती अथवा प्रमादकी त. सू./९/३५ हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो प्रतीक्षापूर्वक दूसरेके धनको हरण करनेके संकल्पका रोद्रम्...।३५। हिंसा, असत्य, चोरी और बार-बार चिन्तवन करना तीसरा रौद्रध्यान है। चेतनविषयसंरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान अचेतनरूप अपने परिग्रहमें यह मेरा परिग्रह है, है ।३५। मैं इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वालेका नाश कर उसकी म. पु./२१/४३ हिंसानन्दमृषानन्दस्तेय रक्षा करनेके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना संरक्षणात्मकम् ।।४३।। हिंसानन्द, मृषानन्द, विषयसंरक्षणानन्द नामका चौथा रौद्रध्यान है। स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द अर्थात् परिग्रहकी रक्षामें रात-दिन लगा रहकर आनन्द मानना ये रौद्रध्यानके का. अ./४७५-४७६ हिंसाणंदेण जुदो चार भेद है ।।३५ ।। (चा. सा./१७०/२): (ज्ञा./ असञ्चवयणेण परिणदो जो हु । तत्थेव अ २६/३); (का. अ./४७३-४७४)। चा.सा. थिरचित्तो रुदं झाणं हवे तस्स ।४७५। पर१७०/१ रौद्रं च बाह्याध्यात्मिक भेदेन विसय-हरण-सीतोसगीय-विसए सुरक्खणे द्विविधम् । रौद्रध्यान भी बाह्य और आध्यात्मिकके दुक्खो। तग्गय-चिंताविट्ठो णिरंतरं तं पि रुदं भेदसे दो प्रकारका है। पि ।४७६। जो हिंसामें आनन्द मानता है, और असत्य बोलनेमें आनन्द मानता है तथा उसीमें [३.] रौद्रध्यानके भेदोंके लक्षण जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है, उसको रौद्रध्यान चा. सा./१७०/२ तीव्रकषायानुरञ्जनं हिंसानन्दं होता है ।४७५ । जो पुरुष दूसरोंकी विषयसामग्रीको प्रथमरौद्रम् । स्वबुद्धिविकल्पितयुक्तिभिः परेषां हरनेका स्वभाववाला है, और अपनी विषयसामग्री श्रद्धेयरूपाभिः परवञ्चनं प्रति मृषाकथने की रक्षा करनेमें चतुर है, तथा निरन्तर जिसका संकल्पाध्यावसानं मृषानन्दं द्वितीयरौद्रम्। चित्त इन कामोंमें लगा रहता है वह भी रौद्रध्यानी हठात्कारेण प्रमादप्रतीक्षया वा परस्वापहरणं प्रति है ।४७६। सङ्कल्पाध्यवसानं तृतीयरौद्रम् । चेतना ज्ञा./२६/४-३४ का भावार्थ-हते निष्पीडिते चेतनलक्षणे स्वपरिग्रहे ममैवेदं स्वमहमेवास्य ध्वस्ते जन्तुजाते कदर्थिते । स्वेन चान्येन यो स्वामीत्यभि-निवेशात्तदपहारकव्यापादनेन संरक्षणं हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते ।४। असत्यकल्पनाजालप्रति सङ्कल्पाध्यवसानं संरक्षणानन्दं चतुर्थं कश्मलीकृतमानसः। चेष्टते यजनस्तद्धि मृषारौद्रं रौद्रम् । तीव्रकषायके उदयसे हिंसामें आनन्द प्रकीर्तितम् ।१६। यचौर्याय शरीरिणामहरमानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरोंको हश्चिन्ताः समुत्पद्यते-कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धिके द्वारा कल्पना कुर्वन्ति यत्सन्ततम् । चौर्येणापि हते परैः परधने की हुई युक्तियोंके द्वारा दूसरोंको ठगनेके लिए यजायते संभ्रम-स्तञ्चौर्यप्रभवं वदन्ति निपुणा रौद्रं झूठ बोलनेके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना । सुनिन्दास्पदम्।२५। बह्वारम्भपरिग्रहेषु नियतं Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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