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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २३५ कहलाते हैं । इनमें से अविरत और देशविरत [१.] रौद्र सामान्य लक्षण जीवोंको चारों ही प्रकारका आर्तध्यान होता है। भ. आ./म./१७०३/१५२८ तेणिक्कमोससारप्रमत संयतों के निदानके सिवा बाकीके तीन क्खणेस तह चेव छबिहारंभे रुह कसायइंसहियं प्रमादकी तीव्रता वश कदाचित् होते हैं। (रा.वा. झाणं भणियं समासेण ।।१७०३।। दूसरों के ९/३४/१/६२९) (ह.पु. ५६/१८) (म. पु. २१/ द्रव्य लेनेका अभिप्राय, झूठ बोलनेमें आनन्द मानना, ३७) (चा. सा. १६९/३) (ज्ञा. २५/३८-३९) दूसरेके मारनेका अभिप्राय, छहकायके जीवोंकी (द्र. सं/टी. ४८/२०१) विराधना अथवा असिमसि आदि परिग्रह के आरम्भ साधुयोग्य आर्त्तध्यानकी सीमा - दे. संयत/३ । व संग्रह करनेमें आनन्द मानना इनमें जो कषाय २. आर्त्तध्यानके बाह्यचिह्न सहित मनको करना वह संक्षेपसे रौद्रध्यान कहा ज्ञा. २५/४३ शङ्काशोकभयप्रमादकलहश्चित्त गया है ।।१७०३ ।। (मू.आ. ३९६) भ्रमोद्धान्तयः, उन्मादो विषयोत्सुकत्वम- स. सि./९/२८/४४५/१० रुद्रः, क्रूराशय-स्तस्य सकृन्निद्राङ्गजाड्यश्रमाः। मूर्छादीनि शरीरिणा- कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् । रुद्रका अर्थ क्रूर मविरतलिङ्गानि बाह्यान्यल-भार्त्ताधिष्ठित्वचेतसां आशय है, इसका कर्म या इसमें होनेवाला (भाव) श्रुतधरावर्णितानि स्फुटम्।।४३।। इस रौद्र है। (रा.वा./९/२८/२/६२७/२८) (ज्ञा./ आर्त्तध्यानके आश्रितचित्तवाले पुरुषोंके बाह्यचिह्न २६/२); (भा. पा./टी/७८/२२६/१७)। शास्त्रोंके पारगामी विद्वानोंने इस प्रकार कहे है कि म. पु./२१/४२ प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः, क्रूरः प्रथम तो शंका होती है, अर्थात् हर बातमें सन्देह सत्त्वेषु निघृणः। पुमांस्तत्र भवं रौद्रं, विद्धि ध्यानं होता है, फिर शोक होता है, भय होता है- सावधानी । चतुर्विधम् ।।४२।। जो पुरुष प्राणियोंको रुलाता नहीं होती, कलह करता है, चित्तभ्रम हो जाता है, है वह रुद्र क्रर अथवा सब जीवोंमें निर्दय कहलाता उद्भ्रान्ति होती है, चित्त एक जगह नहीं ठहरता, है ऐसे परुषमें जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते विषयसेवनमें उत्कण्ठा होती है, निरन्तर निद्रा गमन हैं ।४२। (भ.आ./वि./१७०२/१५३०/ पर होता है, अंगमें जडता होती है, खेद होता है, उदा उद्धृत)। मुर्छा होती है, इत्यादि चिन्ह आत्तध्यानी के प्रगट चा.सा./१७०/२ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं रौद्रध्याहोते हैं । नम् । जिसे अपना ही आत्मा जान सके उसे २. रौद्रध्यान आध्यात्मिक रौद्रध्यान कहते हैं। रौद्रध्यान- हिंसा आदि पाप कार्य करके गर्वपूर्वक नि.सा. / ता. वृ./८९ चौरजारशात्रवजनडींगे मारते रहनेका भाव रौद्रध्यान कहलाता है। वधबंधनसन्निबद्धमहद्वेषजनितं रौद्रध्यानम् । यह अत्यन्त अनिष्टकारी है। हीनाधिक रुपसे पंचम चोर-जार-शत्रुजनोंके वध-बन्धन सम्बन्धी महाद्वेषसे गुणस्थान तक ही होना सम्भव है, आगे नहीं । उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान... । _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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