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________________ २३४ ध्यानशतकम् रोगाणां माभूत्स्वप्नेऽपि सम्भवः । ममेति या ज्ञा. २५/४२ अनन्तदुःखसङ्कीर्णस्य तिर्यग्गतेः, नृणां चिन्ता स्यादा” तत्तृतीयकम् ।।३३।। वात- फलं... ।।४२।। आर्त्तध्यानका फल अनन्तदुखोंसे पित्त- कफके प्रकोपसे उत्पन्न हुए शरीरको नाश व्याप्त तिर्यंचगति है । करनेवाले वीर्यसे प्रबल और क्षण-क्षणमें उत्पन्न ३ मनोज्ञ व निदान आर्तध्यानमें अन्तर होनेवाले कास, श्वास, भगन्दर, जलोदर, जरा, कोढ, अतिसार, ज्वरादिक रोगोंसे मनुष्योंको जो रा. वा. ९/३३/१/३३ विपरीतं मनोज्ञस्येव्याकुलता होती है, उसे अनिन्दित पुरुषोने रोग त्यनेनैव निदानं सङ्गृहीतमिति, तन; किं पीडा चिन्तवन नामा आर्तध्यान कहा है, यह ध्यान कारणम् ? अप्राप्तपूर्वं विषयत्वान्निदानस्य। दुर्निवार और दुखोंका आकार है जो कि सुखमात्रया प्रलम्भितस्याप्राप्तपूर्व- प्रार्थनाभिमुख्याआगामीकालमें पापबन्धका कारण है ।।३२ ।। दनागतार्थप्राप्तिनिबन्धनं निदानमित्यस्ति जीवोंको ऐसी चिन्ता हो कि मेरे किंचित् रोगकी विशेषः । प्रश्न-'विपरीतं मनोज्ञस्य' इस सूत्रसे उत्पत्ति स्वप्नमें भी न हो सो ऐसा चिन्तवन तीसरा निदान का संग्रह हो जाता है? उत्तर, नहीं, क्योंकि आर्तध्यान है ।।३३।। निदान अप्राप्तकी प्राप्ति के लिए होता है, इसमें पारलौकिक विषय-सुखकी गृद्धिमें अनागत अर्थकी * निदानं व अपध्यानके लक्षण - दे० वह वह नाम । प्राप्तिके लिए सतत चिन्ता रहती है । इस प्रकार [२.] आर्तध्यान निर्देश इन दोनों में अन्तर है । १. आर्तध्यानमें सम्भव भाव व लेश्या [३.] आर्तध्यानका स्वामित्व म. पु. २१/३८ अप्रशस्ततमं लेश्या त्रयमाश्रित्य १. १-६ गुणस्थान तक होता है जृम्भितम् । अन्तर्मुहूर्तकालं तद् अप्रशस्ता त.सू. ९/३४ तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् वलम्बनम् ।।३८।। यह चारों प्रकारका आर्त्तध्यान ।।३४।। यह आर्त्तध्यान अविरत, देशविरत, और अत्यन्त अशुभ कृष्ण, नील और कापोत लेश्याका प्रमत्तसंयत जीवोंको होता है। आश्रय कर उत्पन्न होता है, इसका काल अन्तर्मुहूर्त है और आलम्बन अशुभ है । (ज्ञा.२५/४०) स. सि. ९/३४/४४७/१४ अविरताः (चा.सा./१६९/३) सम्यग्दृष्ट्यन्ताः, देशविरता: संयतासंयताः, प्रमत्तसंयताः... तत्राविरतदेशनिरतानां २. आर्तध्यानका फल चतुर्विधमप्यार्तं भवति... प्रमत्तसंयतानां तु स. सि. ९/२९ यह संसार का कारण है । निदानवय॑मन्यदार्त्तत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात्कारा.वा. ९/३३/१/६२९ तिर्यग्भवगमनपर्यव चित्स्यात् । असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तकके सनम्। इस आर्तध्यानका फल तिर्यञ्चगति है । जीव अविरत कहलाते है, संयतासंयत जीव देशविरत (ह.पु. ५६/१८), (चा.सा. १६९/४) कहलाते हैं, प्रमाद से युक्त क्रिया करनेवाले प्रमत्तसंयत ___Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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