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परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम्
२३१ बाह्य चिह्न है ।।४० ।। इसी प्रकार शरीरका क्षीण हैं । (म.पु.२१/३१-३६), (चा. सा. १६७/४) हो जाना, शरीरकी कान्ति नष्ट हो जाना, हाथोंपर कपोल रखकर पश्चात्ताप करना, आँसू डालना,
चा. सा. १६७/४ तत्रात बाह्याध्यात्मिक-भेदाद् तथा इसी प्रकार और भी अनेक कार्य आर्त्तध्यान
द्विविकल्पम् । के बाह्यचिन्ह कहलाते हैं । (चा.सा. १६७/४) बाह्य और अध्यात्मके भेदसे आर्त्तध्यान दो प्रकारका ज्ञा. २५/२३/२५७
है।... और वह आध्यात्मिक ध्यान चार प्रकारका
होता है। ऋते भवमथार्त स्यादसद्ध्यानं शरीरिणाम् ।। दिग्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ।।२३।। द्र.सं./टी. ४८/२०१ इष्टवियोगानिष्ट - ऋत कहिये पीडा-दुःख उपजै सो आर्तध्यान है ।।
संयोगव्याधिप्रतिकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं सो यह ध्यान अप्रशस्त है । जैसे किसी प्राणीके चतुर्विधमार्तध्यानम् । इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग और दिशाओंके भूल जानेसे उन्मत्तता होती है उसके रोग इन तीनोंको दूर करनेमें तथा भोगो वा भोगोंके समान है । यह ध्यान अविद्या अर्थात् मिथ्याज्ञानकी कारणोंमें वांछा रूप चार प्रकारका आर्त्तध्यान होता वासनाके वशसे उत्पन्न होती है। २. आर्तध्यानका आध्यात्मिक लक्षण (चा. सा. १६७/४) चा. सा० १६७/५ स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकार्त्त
आर्त्तध्यान ध्यानम् ।
मनोज्ञ (अन्य लोग जिसका अनुमान कर सकें वह बाह्य
अमनोज्ञ आर्तध्यान है) जिसे केवल अपना ही आत्मा जान अनुत्पत्ति संप्रयोग
अनुत्पत्ति विप्रयोग सकल्प
सङ्कल्प सके उसे आध्यात्मिक आर्त्तध्यान कहते हैं । ३. आर्तध्यान के भेद
बाह्य आध्यात्मिक
आध्यात्मिक ज्ञा. २५/२४
शारीरिक मानसिक अचेतन शारिरीक मानसिक
चेतन अनिष्टयोगजन्याचं तथेष्टार्थात्ययात्परम्। रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानं तुर्यमङ्गिनाम् ।।२४।।
चेतनकृत अचेतनकृत पहिला आर्तध्यान तो जीवों के अनिष्ट पदार्थों के ४. अनिष्टयोगजआर्तध्यानका लक्षण संयोगसे होता है। दूसरा आर्त्तध्यान इष्टपदार्थ के ।
त.सू. ९/३० आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय वियोगसे होता है। तीसरा आर्त्तध्यान रोग के प्रकोपकी पीडासे होता है और चौथा आर्तध्यान
स्मृतिसमन्वाहारः ।।३०।। अमनोज्ञ पदार्थके प्राप्त
होने पर उसके वियोग के लिए चिन्ता सातत्यका निदान कहिये, आगामीकालमें भोगोंकी वांछाके
होना प्रथम आर्त्तध्यान है। होनेसे होता है। इस प्रकार चार भेद आर्त्तध्यानके
बाह्य
कृत
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