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परिशिष्टम्-२२ भिक्षुजिनेन्द्रवर्णीसङ्कलितजैनेन्द्रसिद्धांतकोश-अन्तर्गतं
ध्यानस्वरूपम् । [આ પરિશિષ્ટમાં દિગંબર સંપ્રદાય માન્ય ધ્યાનનું સ્વરૂપ ગ્રહણ કરવામાં આવ્યું છે. દિગંબરમાન્ય ગ્રંથોના પદાર્થોને જૈનેન્દ્ર સિદ્ધાંત કોશમાં સંકલિત કરવામાં આવેલ છે. તે પૈકી કેટલાક પદાર્થો જેવા કે, સ્ત્રીઓને શુક્લધ્યાન ન હોય, નિદાનનામક આર્તધ્યાન સાધુને ન હોય વગેરે જૈન શાસનને માન્ય નથી.
- संपा६४] १. आर्त्तध्यान
१. आर्तध्यानका सामान्य लक्षण आर्त्त- स.सि. ९/२८/४४५/१० ऋतं दुःखं,
स.सि. ९/२८/४४५/१० ऋतं दुख, अथवा अर्दनमर्तिर्वा, तत्र भवमार्त्तम् । ऋत,
अर्दनमर्तिर्वा, तत्र भवमार्तम् । ... आर्त शब्द दुःख अथवा अर्दन- अति इनमें होना सो आर्त
'ऋत' अथवा अति इनमेंसे किसी एकसे बना है। है । रा.वा. ९/२८/१/६२७/२६),
इनमेंसे ऋतका अर्थ दुःख है और 'अति' का (भा.पा.टी.७८/२२६)
'अर्दनम् अतिः' ऐसी निरुक्ति होकर उसका अर्थ
पीडा पहुँचाना है । इसमें (ऋतमें या अतिमें) जो वैसे तो ध्यानशब्द पारमार्थिक योग व समाधिके ।
होता है वह आर्त (वा आर्तध्यान) है (रा.वा. अर्थमें प्रयुक्त होता है, परन्तु वास्तवमें किन्ही भी
९/२८/१/६२७/२६), (भा.पा./टी.७८/२२६) शुभ वा अशुभ परिणामों की एकाग्रताका हो जाना ही ध्यान है । संसारी जीवको चौवीश घण्टे ही
म. पु. २१/४०-४१
मूर्छाकौशील्यकैनाश्य-कौसीद्यान्यतिगृनुताः। कलुषित परिणाम वर्तते है । कुछ इष्टवियोगजनित
भयोद्वेगानुशोकाश्च लिङ्गान्याते स्मृतानि वै होते हैं, कुछ आनिष्टसंयोगजनित, कुछ वेदनाजनित
॥४०।। ओर कुछ आगामी भोगों की तृष्णाजनित; इत्यादि सभी प्रकारके परिणाम आर्त्तध्यान कहलाते हैं ।
बाह्यं च लिङ्गमार्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। जो जीवको पारमार्थिक अध:पतनके कारण है और
हस्तन्यस्तकपोलत्वं साश्रुतान्यच तादृशम् व्यवहारसे अधोगतिके कारण हैं । यद्यपि मोक्षमार्गके
।।४१॥ साधकोंको भी पूर्व अभ्यासके कारण वे कदाचित् परिग्रहमें अत्यन्त आसक्त होना, कुशीलरूप प्रवृत्ति होते है, परन्तु ज्यों-ज्यों वह ऊपर चढता है त्यों- करना, कृपणता करना, व्याज लेकर आजीविका त्यों ये दबते चले जाते हैं।
करना, अत्यन्त लोभ करना, भय करना, उद्वेग [१.] भेद व लक्षण
करना और अतिशय शोक करना ये आर्तध्यानके
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