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________________ २३२ स. सि. ९/३० / ९ अमनोज्ञमप्रियं विषकण्टकशत्रुशस्त्रादि, तद्बाधाकारणत्वाद् 'अमनोज्ञम्' इत्युच्यते । तस्य संप्रयोगे स कथं नाम न मे स्यादिति सङ्कल्पश्चिन्ताप्रबन्धः स्मृतिसमन्वाहारः प्रथममार्त्तमित्याख्यायते । विष, कण्टक, शत्रु और शस्त्र आदि जो अप्रिय पदार्थ हैं वे बाधाके कारण होने से अमनोज्ञ कहे जाते हैं । उनका संयोग होने पर वे 'मेरे कैसे न हों' इस प्रकारका संकल्प चिन्ताप्रबन्ध अर्थात् स्मृतिसमन्वाहार यह प्रथम आर्त्तध्यान कहलाता है। (रा.वा. ९/३० /१-२ / ६२८), (म.पु. २१/ ३२,३५) । नि.सा./ता.वृ. ८९ अनिष्ट संयोगाद्वा समुपजातमार्त्तध्यानम् । अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला जो आर्त्तध्यान... । चा.सा. १६८/५ एतदुःखसाधनसद्भावे तस्य विनाशकाङ्क्षोत्पन्नविनाशसंकल्पाध्यवसानं द्वितीयार्तम् । (शारीरिक व मानसिक) दुखों के कारण उत्पन्न होनेपर उनके विनाशकी इच्छा उत्पन्न होने से उनके विनाशके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना दूसरा आर्तध्यान है । का अ./मू. ४७३ दुक्खयर - विसय- जोए-केम इगं चयदि इदि विचितंतो । चेट्ठदिं जो विक्खित्तो अट्टज्झाणं हवे तस्स ।।४७३।। दुःखकारी विषयोंका संयोग होने पर 'यह कैसे दूर हो' इस प्रकार विचारता हुआ जो विक्षिप्तचित्त हो चेष्टा करता है उसको आर्त्तध्यान होता है । ज्ञा. २५/२५ - २८ ज्वलनजलविषास्त्रव्यालशार्दूलदैत्यैः स्थूलजलबिलसत्त्वै दुर्जनारातिभूपैः । Jain Education International 2010_02 ध्यानशतकम् स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टैर्भवति यदिह योगादाद्यमार्त्तं तदेतत् ।। २५ ।। तथा चरस्थिरैर्भावैरनेकैः समुपस्थितैः । अनिष्टैर्यन्मनः क्लिष्टं स्यादार्त्तं तत्प्रकीर्त्तितम् ।। २६ । । श्रुतैर्दृष्टैः स्मृतैर्ज्ञातैः प्रत्यासत्तिं च संसृतैः । योऽनिष्टाधैर्मन: क्लेशः पूर्वमार्तं तदिष्यते ।। २७ ।। अशेषानिष्टसंयोगे तद्वियोगानुचिन्तनम् । यत्स्यात्तदपि तत्त्वज्ञैः पूर्वमार्तं प्रकीर्तितम् ।। २८ ।। इस जगतमें अपना स्वजन धन शरीर इनके नाश करनेवाले अग्नि, जल, विष, सर्प, शस्त्र, सिंह, दैत्य तथा स्थलके जीव, जलके जीव, बिलके जीव तथा दुष्टजन, वैरी राजा इत्यादि अनिष्टपदार्थों के संयोगसे जो हो सो पहिला आर्तध्यान है ।। २५ ।। तथा चर और स्थिर अनेक अनिष्टपदार्थोके संयोग होने पर जो मन क्लेशरूप हो उसको भी आर्त्तध्यान कहा है ।। २६ ।। जो सुने, देखे, स्मरणमें आये, जाने हुए तथा निकट प्राप्त हुए अनिष्टपदार्थो से मनको क्लेश होता है उसे पहिला आर्त्तध्यान कहते है ।। २७ ।। जो समस्त प्रकारके पदार्थोके संयोग होने पर उनके वियोग होनेका बार-बार चिन्तन हो उसे भी तत्त्वके जानने वालोंने पहिला अनिष्टसंयोगज नामा आर्त्तध्यान कहा है ।। २८ ।। ५. इष्टवियोगजआर्त्तध्यानका लक्षण त. सू. ९ / ३१ विपरीतं मनोज्ञस्य ।। ३१ ।। मनोज्ञवस्तुके वियोग होनेपर उसकी प्राप्तिकी सतत चिन्ता करना दूसरा आर्त्तध्यान है । (भ.आ./मू. १७०२) स.सि.९/३१/४४७/१ मनोज्ञस्येष्टस्य स्वपुत्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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