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________________ २१३ परिशिष्टम्-२०, नवतत्त्वसंग्रहगतध्यानस्वरूपम् समक श्रुत समाय देस सब वृत्ति थाय चारो ही समाय धाय लाभ लहतु है विषम प्रसाद पर चरवेको मन पर रजुकू पकर नर सुखसे चरतु है ऐसो 'धर्म' ध्यान सौध चरवेको भयो बौध वाचनादि 'आलंबन' नामजुं कहतु है १ __ इति 'आलंबन'द्वारम् ५ । अथ 'क्रम' द्वार-योगनिरोधविधि, दोहराप्रथम निरोधे मन सुद्धी, वच तन पीछे जान; तन वचन मन रोधे तथा, वचन तन मन इक ठान १ इति 'क्रम'द्वारम् ६ । अथ 'ध्यातार' द्वार, सवईया इकतिसाधरमका ध्याता ग्याता मुनिजन जग त्राता जगतकू देत साता गाता निज गुणने छोरे सब परमाद जारे सब मोह माद ग्यान ध्यान निराबाद वीर धीर थुणने खीण उपसंत मोह मान माया लोभ कोह चारों गेरे खोह जोह अरि निज मुणने आलम उजारी टारी करम कलंक भारी महावीर वैन ऐननीकी भांत सुणने १ इति 'ध्यातार'द्वारम् ७ ।। अथ ध्यातव्य' द्वार । प्रथम आज्ञाविजयनिपुन अनादि हित मोल तोलके न कित कथन निगोद मित महत प्रभावना भासन सरूप धरे पापको न लेस करे जगत प्रदीप जिनकथन सुहावना जड मति बूझे नहि नय भंग सूझे नहि गमक परिमान गेय गहन भुलावना आरज आचारजके जोग विना मति तुच्छ संका सब छोर वाद वारके कहावना १ अथ अपायविजय कुटुंब के लाज छोरके निलज्ज भयो ठान तअका जतन सीत धाम सहे है चिंता करी चकचूर दुखनमे भरपूर उड गयो तननूर मेरो मेरो कहे है पाप केरी पोटरी उठाय कर एक रोतूं रीक झींक सोग भरे साथी इहां रहे है नरक निगोद फिरे पापनको हार गरे रोय रोय मरे फेर ऊन सुख चहे है २ अथ विपाकविजयकरम सभावथित रस परदेस मित मन वच काये धित सुभासुभ कयों है मूल आठ भेद छेद एकसो अठावना है निज गुन सब दवे प्राणी भूल पयों है राजन ते रंक होत ऊंच थकी नीच गोत कीट ने पतंग भंग नाना रूप धयों है छेदे जिन कर्म भ्रम ध्यान की अगन गर्म मानत अनंत सर्म धर्मधारी ठों है ३ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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