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________________ २१४ अथ संठाणविजय आदि अंत बेहूं नही वीतराग देव कही आसति दरब पंचमय स्वयं सिद्ध है नाम आदि भेद अहुपुव्व धार कहे वहु अधो आदि तीन भेद लोक केरे किद्ध है खिति वले दीप वार नरक विमानाकार भवन आकार चार कलस महिद्ध है। आम अखंड भूप ग्यान मान तेरो रूप निज दृग खोल लाल तोपे सब रिद्ध है ४ इस सवईयेका भावार्थ आगे यंत्रोमे लिखेंगे तहांसे जानना, इति संस्थानविजय इति 'ध्यातव्य' द्वार ८ अथ 'अनुप्रेक्षा' द्वार - ध्यान कर्या पीछे चिंतना ते 'अनुप्रेक्षा' सवईया इकतीसा, समुद्रचिंतन आपने अग्यान करी जम्म जरा मीच नीर कषाय कलस नीर उमगे उतावरो रोग ने विजोग सोग स्वापद अनेक थोग धन धान रामा मान मूढ मति वावरो मनकी घमर तोह मोहकी भमर जोह वात ही अग्यान जिन तान वीचि धाव संका ही लघु तरंग करम कठन ट्रंग पार नही तर अब कहूं तो हे नावरो १ अथ पोतवरनन ध्यानशतकम् संत जन वणिग विरतमय महापोत पत्तन अनूप तिहा मोखरूप जानीये अवधि तारणहार समक बंधन डार ग्यान है करणधार छिदर मिटानीये तप वात वेग कर चलन विराग पंथ संकाकी तरंग न ते खोभ नही मानीये सील अंग रतन जतन करी सौदा भरी अवाबाध लाभ धरी मोख सौध ठानीये २ अथ अनुप्रेक्षा चार कथन, सवईया इकतीसा - जगमे न तेरो कोउ संपत विपत दोउ ए करो अनादिसिद्ध भरम भुलानो है सो तूंत माने मेरो तामे कोन प्यारो तेरो जग अंध कूप झेरो परे दुःख मानो है मात तात सुत भ्रात भारजा बहिन आत कोइ नहीं त्रात थात भूल भ्रम ठानो है थिर नही रहे जग जग छोर धम्म लग आतम आनंद चंद मोख तेरो थानो है ३ इति अनुप्रेक्षाद्वारम् ९ अथ 'लेश्या' द्वारकथन, दोहरा पीत पउम ने सुक्क है, लेस्या तीन प्रधान; सुद्ध सुद्धतर सुद्ध है, उत्कट मंद कहान १ इति श्याद्वारम् १० । अथ 'लिंग' द्वार, सवईया इकतीसा - धमा धम्म आदि गेय ग्यान केरे जे प्रमेय सत सरद्धान करे संका सब छारी है Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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