SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ध्यानशतकम् २१२ रोयां रीकी घरे परी राखत न एक घरी प्रिया मन सोग करी परीकूने जाइ रे माता हुं विहाल कहै लाल मेरो गयो छोर आसमान माही मेरी पूरी हुं न काइ रे मिल कर चार नर अरथीमे घर कर जगमे दिखाइ कर कूटे सिर माइ रे पीछे ही तमासा तेरो देखेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देखे भाइ रे ? ३ हाथी आथी छोर करी धाम वाम परहरी ना तातां तोर करी घरी न ठराइ रे खान पीन हार यार कोउ नही चले नार आपने कमाये पाप आप साथ जाइ रे सुंदरसी वपु जरी छारनमे छार परी आतम ठगोरी भोरी मरी धोखो खाइ रे पीछेहि तमासा तेरो देखेगा जगत सब आफ्ना तमासा आप क्यूं न देखे भाइ रे ? ४ इति ‘भावना'द्वारं संपूर्णम् । अथ 'देश'द्वारमाह- कुशीलसंगवर्जन सवईया इकतीसाभामनि पसु ने षंड रहित स्थान चंग विजन कुसील जनसंगत रहतु है द्युतकर १ हस्तिपार २ सवतिकार ३ नार ४ छातर पवनहार ५ कुट्टिनी सहतु है नट विट भांड रांड पर घर नित हांड एही सब दूर छांडकु ‘सील' कहतु है ध्यान दृढ मुनि मन सुन्य गृह ग्राम बन तथा जना कीरण विसेस न लहतु है १ मन वच काये साधि होत है जहां समाधि तेही देस थानक धियानजोग कहे है पृथी [थ्वी] आप तेज वन बीज फूल जीव धन कीट ने पतंग भंग जीव वधन हे है ऐसा ही सथान ध्यान करने के जोग जान संग एकलो विसेस नहीं लहे है एही देस द्वार मान ध्यान केरा वान तान भिष्ट कर अरि थान सदा जीत रहे है २ इति 'देश' द्वारम् २ । अथ 'काल'द्वारमाह-दोहराजोग समाधिमे वसे, ध्यान काल है सोय; दिवस घरीके कालको, ताते नियम न कोय १ इति 'काल' द्वारम् ३ । अथ 'आसन' द्वार-दोहरासोवत बैठे तिष्ठते, ध्यान सवी विध होय; तीन जोग थिरता करो, आसन नियम [न]कोय १ इति 'आसन' द्वारम् ४ । अथ 'आलंबन' द्वार, सवईया इकतीसावाचन पूछन कित बार बार फेरे नित अनुपेहा सुद्ध मेहा धरम सहतु है Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy