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परिशिष्टम्-२०, नवतत्त्वसंग्रहगतध्यान स्वरूपम्
२११ अथ धर्मध्यानका स्वरूप लिख्यते - द्वार १२ - भावना १, देश २, काल ३, आसन ४, आलंबन ५, क्रम ६, ध्यातव्य ७, ध्याता ८, अनुप्रेक्षा ९, लेश्या १०, लिंग ११, फल १२ । तत्र प्रथम भावना ४-ज्ञान १, दर्शन २, चारित्र ३ वैराग्य ४ । अथ प्रथम 'ज्ञान'-भावना सवईया इकतीसा
यथावत् जोग वही गुरुगम्य ग्यान लही आठ ही आचार ही ग्यान सुद्ध धर्यो है ग्यानके अभ्यास करी चंचलता दूर टरी आसवास दूर परी ग्यानघट भयों है प्रकट तुरंग रंग कूदित विहंग खंग मन थिर भयो जुं निवात दीप जो है ग्यान सार मन धार विमल मति उजार आतम संभार थिर ध्यान जोग को है १
इति 'ग्यान'भावना । अथ 'दर्शन'-भावना
संखा कंखा दूर करी मूढता सकल हरी सम थिर गुन भरी टरी सब मोहनी मिथ्या रंग भयो भंग कुगुर कुसंग फंग सतगुर संग चंग तत्त बात टोहनी निर्वेद सम मान दयाने संवेग ठान आसति करत जान राग द्वेस दोहनी
ध्यान केरी तान धरे आतमसरूप भरे भावना समक करे मति सोहनी १ इति अथ 'चारित्र'-भावनाउपादान नूतन करम कोन करे जीव पुव्व भव संचित दगध करे छारसी सुभका गहन करे ध्यान तो धरम धरे बिना ही जतन जैसे चाकर जुहारसी चारतको रूप धार करम पखार डार मार धार मार बूंद गिरे जैसे ठारसी करम कलंक नासे आतमसरूप पासे सत्ताको सरूप भासे जैसे देखे आरसी १ इति अथ 'वैराग'-भावना
चक्रपति विभो अति हलधर गदाधर मंडलीक रान जाने फूले अतिमानमे रतिपति विभो मति सुखनकू मान अति जगमे सुहाये जैसे वादर विहानमे रंभा अनुहार नार तनमे करे सिंगार खिनक तमासा जैसे बीज आसमानमे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमा जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे १ खासा खाना खाते मनमाना सुख चाते ताते जानते न जात दिन रात तान मानमे सुंदर सरूप वने भूपनमे वने वने पोर समेसने अने वच मद मानमे गेह नेह देह संग आस लोभ नार रंग छोरके विहंग जैसे जात असमानमे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमां जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे २
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