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________________ १८४ ध्यानशतकम् नव मे दीठा दुःख सहू परसंगथी, ज्ञानी० न पडे भवमे कोयं के ज्ञान उमंगथी । ज्ञानी० ११ ए आतम निज पास अछे ज्ञानी लहे, ज्ञानी० बाहिर देखे तेह निकामे दुख हे; ज्ञानी० सोहं सोहं आपरम्याथी जेहु रे, ज्ञानी० ते परमेष्ठीरूप तत्त्व निज गुणवरे । ज्ञानी० १२ सिद्धांतमे पण एह एह परमीश छे, ज्ञानी० देखणहारो एह एह जगदीश छ; ज्ञानी० इंद्रियथी मनखा धरो निज ज्ञानमे, ज्ञानी० निज जाण्या विना दुख अछे तप दानमे । ज्ञानी० १३ ज्ञानसुधारस युक्त खेद दुख नवि सहे, ज्ञानी० राग द्वेष मलहीन वीन निज गुण लहे; ज्ञानी० निर्विकल्प मन थापी करो निज काजने, ज्ञानी० चंचल चित न देखे ते निजराजने । ज्ञानी० १४ राग द्वेष अज्ञान हरो क्षण एकमे, ज्ञानी० ज्ञानानंद सरुप स्व आत्मविवेकमे; ज्ञानी० निज अज्ञानेज कर्म, जाय निज ज्ञानथी, ज्ञानी० कर्म न तूटे तपथी ते गले ध्यानथी । ज्ञानी० १५ देह बुद्धिथी बंध मोक्ष आतमगुणे, ज्ञानी० तीन लिंग विणु नित्य शुद्ध आतमथुणे, ज्ञानी० योगीने निज ज्ञानथकी परभ्रम खले । ज्ञानी० १६ अंतर तजे वहेलेह तत्त्वविण मूढथी, ज्ञानी० शुद्धातम सुप्रत्यक्ष गहे अतिशुद्धथी; ज्ञानी० करे काज सहु अन्य तोहि मन ज्ञानमे, ज्ञानी० भवसुण जाणे मूढ अने मुनि ध्यानमे । ज्ञानी० १७ आत्मज्ञान गुणज्योति सदा आनंद छे, ज्ञानी० कर्म उदय वश दुःख तोहि सुख कंद छ; ज्ञानी० Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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